बिन मोहब्बत के कहीं अफलाक़ नहीं होते
बिन मोहब्बत के कहीं अफलाक़ नहीं होते
वस्ल-ए-यार का मज़ा क्या अगर फिराक़ नहीं होते
तुमसे मिलना हाथों की लकीरों में लिखा था
इतने हसीन वाक़यात इत्तेफ़ाक़ नहीं होते
मिले जो राहों में कद्रदाँ उसका हो जाये
इतने अच्छे तो सभी के इदराक़ नहीं होते
जवाब सुनने तक रुक जाता हाल पूछ के मिरा
दर्द बन के अश्क़ आँख में नमनाक़ नहीं होते
बोलेगा तोल – तोलकर वादा निभाने वाला
होते हैं अज़ीज़ जो जबां सि बेबाक़ नहीं होते
बहुत अटके है नज़र पैरहन पे मगर छुपा ले
दिल की उदासियां एसे तो पौशाक़ नहीं होते
कोयले से तन-मन को ‘सरु’ हीरे में बदल डाल
कोई कितना भी जलाए मगर खाक़ नहीं होते