बिन तुम्हारे अख़बार हो जाता हूँ
दोस्तों,
एक ताजा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले,,,,!!
ग़ज़ल
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आजकल मैं,बिन तुम्हारे अख़बार हो जाता हूँ,
पूछता है कोई बारे में तेरे ख़बरदार हो जाता हूँ।
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रुसवा जब भी करे हम को महफिल से अपनी,
सिर झुका कर शर्मशार सा हरबार हो जाता हूँ।
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लाख वो हम को धिक्कारे है जिंदगी में अपनी,
बेखुदी है कि मेरी मैं फिर मददगार हो जाता हूँ।
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बदलते है लिबास मगर मन की न बदबू जाती,
देखता हूँ ऐसे लोगों को मैं खूंखार हो जाता हूँ।
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है ख़बर गुलशन में गुल तो है मगर महक नही,
गुजरता जानिब से, जब मैं बेज़ार हो जाता हूँ।
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हसरते बहुत है दिल में थोड़ी सी गुप्तगू कर ले,
ये जुबां तल्ख है “जैदि” ज़रा बेदार हो जाता हूँ।
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मायने:-
बेखुदी:- आत्मविस्मृति (सुदबुद खोना)
बेज़ार:- दुखी
बेदार:-चौकन्ना
शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”