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15 Apr 2017 · 3 min read

बिन काया के हो गये ‘नानक’ आखिरकार

साक्षात ईश्वर के समान, असीम अलौकिक शक्तियों के पुंज, जातिपांत-भेदभाव के विनाशक, मानवता के पावन संदेश को समस्त जगत में पुष्प-सुगंध की तरह फैलाने वाले गुरु नानक सिख-धर्म के संस्थापक ही नहीं, अद्भुत असरकारी और सत्योन्मुखी कविता की अमृतधारा के ऐसे कवि थे, जिन्हें मंगलकारी भावना और आपसी सद्भावना के लिये युग-युग तक याद किया जायेगा।
सिखों के आदिगुरु नानक देव के पावन संदेशों की दिव्य-झलक ‘आदिगुरु ग्रन्थ साहिब’ एवं उन्हीं के द्वारा रचित ‘जपुजी’ में अनुनादित है। इन सच्चे ग्रन्थों में नानक ने उपदेश दिया है कि जल पिता के समान है। हमारी धरती माता महान है। वायु गुरु है। रात और दिन धाया है, जिनकी गोद में यह संसार खेलते हुए आनंदमग्न हो रहा है।
गुरु नानक ने कहा कि मानव-धर्म का पालन करो। भेदभाव को मिटाओ। जातिपाँत-ऊँचनीच के भेद को खत्म करो। यह संसार दया-करुणा से ही आलोकित होगा। इसलिए हर जीव की रक्षा करते हुए इसे प्रकाशवान बनाओ और हर प्रकार के अंधकार से लड़ना सीखो।
आपसी तकरार और बैर-भाव में डूबे लोगों को नानक के समझाया- ‘‘सभी का हृदय घृणा और अहंकार से नहीं, प्यार से जीतो।’’ उन्होंने मुसलमानों को संदेश दिया कि – ‘‘काकर-पाथर की नहीं, सद्ज्ञान की मस्जिद बनाओ और उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ। दया को ही मस्जिद मानो, न्याय को कुरान जानो। नम्रता की सुन्नत करो। सौजन्य का रोजा रखो, तभी सच्चे मुसलमान कहलाओगे। बिना ऐसी इबादत के खाली हाथ आए हो, खाली हाथ जाओगे।’’
गुरुनानक ने नये ज्ञान के मार्ग खोलते हुए कहा- ‘‘ईश्वर, अल्ला, आदि सब एक ही परमात्मा के रूप हैं। विचार करोगे तो अलग से कोई भेद नहीं। प्रभु या परमात्मा प्रकाश का एक अक्षय पुंज है। उस प्रकाशपुंज के सदृश संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं। जिसका नाम सत्य है वही सच्चे अर्थों में इस सृष्टि को चलाता है। इसलिए हमें उसी अलौकिक निराकार सतनाम का जाप करना चाहिए। यह सतनाम भयरहित है। अजर है, अमर है। हमें इसी परमात्मा के रूप को समझना, जानना और मानना चाहिए। जब तक हम सतनाम का स्मरण नहीं करेंगे, तब तक किसी भी प्रकार के उत्थान की बात करना बेमानी है। यदि हमें अपने मन के अंधकार को दूर करना है तो जाति-पाँत के बन्धन तोड़ने ही होंगे। क्रोध-अहंकार, मद-मोह-स्वार्थ को त्यागना ही होगा। तभी हम ईश्वर के निकट जा सकते हैं या उसे पा सकते हैं।’’
गुरु नानक के समय में हिन्दू-मुसलमानों का परस्पर बैर चरम पर था। छोटी-छोटी बातों पर झगड़ पड़ना आम बात थी। नानक के शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। नानक नहीं चाहते थे कि उनके इस जगत में न रहने के उपरांत लोग आपस में लड़े। असौदवदी-10, सम्वत-1596 को गुरुजी ने सिखसंगत को इकट्ठा कर जब चादर ओढ़ ली और समस्त संगत को सत के नाम का जाप करने को कहा तो समस्त संगत घंटों सतनाम के जाप में इतने तल्लीन रही कि उसे यह पता ही नहीं चला कि नानक तो इस संसार को छोड़ कर परमतत्व में विलीन हो चुके हैं। जब संगत को होश आया तो गुरुजी को लेकर विवाद शुरु हो गया। मुसलमान शिष्य गुरुजी को दफनाने की बात पर अड़ने लगे तो हिन्दू शिष्य उनके दाह संस्कार की जिद करने लगे। इसी बीच जब दोनों ने चादर उठायी तो देखा कि उसमें से नानकजी की काया ही गायब थी, उसके स्थान पर फूलों का ढेर था, जिसे देख शिष्यों को अपनी-अपनी गलती का आभास हुआ। शिष्यों ने आधे-आधे फूल बांटकर अपने-अपने संस्कार के अनुरुप नानक जी को श्रद्धांजलि अर्पित की और सदैव एक रहने की सौगंधे खायीं।
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रमेशराज,सम्पर्क-15/109, ईसानगर, अलीगढ़

Language: Hindi
Tag: लेख
301 Views
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