बिना तुम्हारे
बिना तुम्हारे गुज़रती इस
शब की कोई सहर नही ,
इस रहगुज़र के सफ़र की
कोई मंज़िल नही ,
इस उठते दर्द का कोई
ठिकाना नही ,
इन दिल के ज़ख्म़ों का कोई
मुदावा नही ,
तुम्हे खोने का ग़म दिल से
जुदा नही होता ,
दर्द बढ़ता ही जाता है बढ़कर
फ़ुगाँ नही होता ,
सांसों की आमेज़ी बनती
टूटती रहती है ,
माज़ी की बसी तस्वीर बनती
बिगड़ती रहती है ,
खाली-खाली सा लगता है कुछ
समझ नहीआता है ,
पशेमानी का ये एहसास दिल से
नही जाता है ,
कुछ इस क़दर ये ज़िंदगी
बिखर कर रह गई है ,
जिस्म़ से रूह जुदा फ़क़त ज़िंदा लाश
बनकर रह गई है।