बिणजारी रे
भरी दुपहर में डामर की सड़क पर सूरज की दिशा में दौड़े चली जा रही थी
उसके पाँव में चांदी के मोटे कड़े और उनके निचे घुँघरू वाली कड़ियाँ और उनके निचे मोटी पाज़ेब थी
उसके घाघरे का घेर नापना उसकी गति के आगे बौना लगा
उसकी लूगड़ी में लगे पैबंद और उधड़ी किनारी का गोटा जाने कितनी कंटिली झाडियों से चुंबन की कहानी कहता रहा और उड़ता रहा उसके दौड़ने के संग
कांचली की डंसे ढीली थी या कसी हुई समझना मुश्किल था
बाली बोरले की कहानी भला कौन सुनता
कि होंठ कटे रक्त सने खुद ही कहते रहे सब
टिबड़ी के पीछे झाडियों में हँसी के फव्वारे छूटे पड़े थे और सड़क पर झांझर का रुदन बह रहा था
कड़क धूप में भरी दुपहरी में ये लोग सुस्ताते हैँ
कड़क धूप में भरी दुपहरी में शौच का स्थान खोजना बड़ी भूल थी
बिणजारी रे घुंघटियो खोल
नज़र उतारूँ थारी फूटरी
गेला मांय ऊभो चोरडो
मत जा ए बा’रन डावड़ी
ऐसा ही कोई गीत बज रहा है सड़क पर कहीं….
(अखबार सने हैं )
✍️nitu kumawat नटखट