बिटिया और धरती
फिसलता जा रहा है वक्त हाथ से।
न बिटिया बची ,न पर्यावरण।
न बचा इन दोनो का आवरण।
बहुत निर्दयी हो रहे है आखिर हम
ग़लत सीख की तरफ लगाते हैं दम।
औरत भी होती है बिल्कुल धरा सी
दोनों संभालो न लगे खरोंच ज़रा सी।
दोनों ही जननी,दोनों ही माता
दोनों का शोषण, क्यूं तुम्हें भाता।
वक्त रेत बन कर फिसलता जा रहा।
मां और ममता को खोता जा रहा।
सुरिंदर कौर