बिछोह
सूखी हुई पत्ती हूं
इस पेड़ की –
वक्त की धारा में
परिपक्वता की आड़ में –
बिछुड़ रही हूं मैं –
पर —?
धरती पर गिर कर
पैरों से रौंदे जाने पर,
मिट्टी में मिलकर
खाद बन — सदा
पेड़ को हरा – भरा देखने की
चाहत रखती हूं मैं
भले ही –
पथिक को छांव देने में ,
सागर में बूंद जितना ही,
ही रहा होगा योगदान मेरा,
मगर –
फिर भी सुकून इतना –
कि सागर की मिली पहचान मुझे
लुप्त हूं इसी के जल में
पर मिला तो इक नाम मुझे,
इसीलिए –
मांगती हूं एक ही दुआ,
इस पेड़ – सा विशाल हरा – भरा
जीवन रहे हर उस पथिक का
सुस्ताने आए जो इसकी छांव में
महके यह सदा सुंदर उपवन – सा
धूमिल न हो कभी इसकी छाया।।
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