बिखर गये सपने
“मैं यहाँ मर रहा हूँ और तुझे पढ़ने की पड़ी है” मोहनलाल जी ने सुमित की सारी किताबें गुस्से में आकर फेंक दीं। वार्ड के सभी मरीज देखते रह गए। सुमित रोते हुए यहां वहां बिखरी किताबें समेटने लगा।
उसके पापा मोहनलाल जी पिछले तीन सालों से लगातार बीमार थे तथा बार-बार अलवर व जयपुर के अस्पतालों में भर्ती होते रहते थे। घर में दादाजी, दादीजी, मां के अलावा दो छोटे भाई बहन भी थे।घर में पापा के अलावा कमाने वाला कोई नहीं था। पापा की बार-बार की बीमारी में मम्मी के जेवर तक गिरवी रखे जा चुके थे।
सुमित ने इसी वर्ष कालेज में बी एस सी (बायो) में दाखिला लिया है और डाक्टर बनकर अपने पापा को ठीक करना चाहता था। बड़ा बेटा होने के कारण रात- दिन पापा के साथ काटेज वार्ड में वही रहता था। कालेज की प्रारंभिक कक्षाओं में ही वह न जा पाया।
स्वभाव से सीधा व मासूम सुमित अभी मात्र 18 वर्ष का ही तो था। पापा की सेवा के साथ वह अपना डाक्टर बनने का सपना पूरा करने के लिए अस्पताल में ही किताबें ले आता था।
आसपास के मरीजों के परिजनों ने मोहनलाल जी से कहा – “कितना सीधा व सेवाभावी लड़का है। रात-दिन आपकी सेवा में जुटा रहता है। भाई वह पढ़ाई ही तो कर रहा था। तुमने भी बेवजह ही डांट दिया बेचारे को। ”
मोहनलाल जी की आंखें भर आईं। वे कातर दृष्टि से उसे देखकर बोले – “इधर आ बेटा। मुझे माफ कर दे । मैं भी अपनी बीमारी के कारण चिड़चिड़ा हो गया हूँ।”
“कोई बात नहीं पापा। मुझे पता है आप बहुत दिनों से बीमार हैं न इसलिए आपको गुस्सा आया वरना आप तो मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं जब पढ़ लिख कर डाक्टर बन जाऊंगा तब आपको बिल्कुल ठीक कर दूंगा।”
यह क्या। अगले ही क्षण मोहनलाल जी को जोरों की खांसी के साथ अस्थमा का गंभीर अटैक पड़ा। सुमित नर्स व डाक्टर को पुकारता हुआ दौड़ा। स्टाफ नर्स ने तुरन्त आक्सीजन की रेंज बढ़ाई। पापा बहुत जोर से हांफ व उछल रहे थे। डाक्टर्स की टीम घेरे खड़ी थी। हार्ट अटैक का एक झटका मोहनलाल जी ने दम तोड़ दिया।
सुमित स्तब्ध। दुख का पहाड़ टूट पड़ा मासूम पर बिना बाप का यह मासूम कच्ची उम्र में एकाएक पांच सदस्यों के परिवार का पालक बन बैठा। सुमित का सुहाना सपना कांच की तरह चकनाचूर हो कर उसकी आंखों के सामने बिखर गया था। उसकी सोचने समझने की जैसे शक्ति ही नहीं रह गयी थी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना