बिखरे अल्फ़ाज़
सितारों की जमात में आ गए तुम,
फलक पर खास मुकाम पा गए तुम,
जमीं पर पसरी चांदनी कहती,
तविन्दा चाँद के मानिंद छा गए हो तुम।
एहसानफरामोश हैं वे जो नहीं मानते,
वरना जिंदगी गुजरती है एहसान में सबकी।
दस्तावेज़ से मिले जाते हैं पुराने पैग़ाम उनके,
आज के दौर में वो खत भी तो नहीं लिखते।
जिनके पैगाम का इशारा कर रहा था कंगूरे पर बैठा कव्वा।
नामावर देकर गया खत उनका जो था मेरे नाम का।
कैसे खरीद लूँ या खारिज करूं कैसे,
जैसे किराएदार तुम वैसे तो हम भी हैं।
गलतफहमियों में जीना मुनासिब नहीं कतई।
हकीकत भले रुलाये मगर शुकून देती है।
पोंछ लो अश्क़, गम को अंदर छुपा रहने दो।
अल्फ़ाज़ ए शायरी हाल खुद ही बयान कर देंगी।
होकर न होने का ख्याल क्या मजबूरी है?
कश्मकश वजह से ही जिंदगी से दूरी है।
मुबहम हो राह तो खोज ले हमनवां कोई,
खुद होने के अहसास बहुत जरूरी है।
जीने की तमन्ना में पी लेना कहाँ तक मुनासिब।
सम्भलने के लिए लड़खड़ाना जरूरी तो नहीं।
गर अहलेज़र्फ़ हो कमजर्फ को नशीहत न देना।
पैमाना नहीं झुकता कभी सुराही के आगे कतई।
उधार लेने में गुरेज क्यों करते हो अदना।
आखिरी सफर भी तय होता कफ़न की उधारी लेकर।
अंधेरी कोठरी के वास्ते कुछ सामान जुटा।
मौला दर पे जाकर अपना ईमान लुटा।
बगड़ी बन जाती है फ़क़त एक सिजदे में।
मल ले मिट्टी माथे पर उसके दरबार से उठा।
हम तेरे साथ हैं बताते चलो,
किसी के रोज काम आते चलो।
जाने किसकी जरूरत आन पड़े,
अपने पराये सबको गले लगाते चलो।
फायदेमंद बनो
फायदा न उठाओ कभी।
सबकी मजबूरियों को
देखता है ऊपरवाला।
सतीश सृजन, लखनऊ.