बिक चुके जमीर और मुँह सिले हुए।
गज़ल
212……1212……1212……12
बिक चुके जमीर और मुँह सिले हुए।
आदमी न काम के ये हैं मरे हुए।
कर रहें हैं काम जो गलत निगाह में,
दिल ही दिल मे लोग हैं वो खुद डरे हुए।
देश को ये खा रहे हैं इत्मिनान से,
चोर और सिपाही है सभी मिले हुए।
चीन और जापान में विकास देख लो,
हम वहीं खड़े हैं, थे जहां खड़े हुए।
खा गये गरीबों की,असंख्य झोपड़ी,
वो गरीब के हैं खैरख्वा’ह बने हुए।
देश के कानून का मजाक ही तो है,
सब डकैत चोर हैं नेता चुने हुए।
देश प्रेम दिल में है तो देश से है प्यार,
प्रेमी से गिला न कोई देश के हुए।
…….. ✍️सत्य कुमार ‘प्रेमी’