बाज़ार
मैं बाजार हूँ
मैं भावनाओ से नही,
आदर्शो से भी नहीं,
मैं सिर्फ मूल्यों से
चलता हूँ।
जो काम की होती है,
उन वस्तुओं से ही,
अक्सर सजता हूँ।
काम के पत्थर को
हीरे के भाव ,
तो बिना काम के
हीरे को भी,
पत्थर के भाव रखता हूँ।
आदमी का मूल्य हो,
या सामान का,
मैं चलन के हिसाब से,
सजता हूँ।
कोई अपने दादा की
निशानी को,
बेशकीमती समझता है।
परन्तु जब मुझमे लाता है।
तब उसका मूल्य ,
पता चलता है।
मेरा मीज़ान सबको,
वक्त के हिसाब से
तौलता है।
कौन नायाब है,
इसका भाव तो,
मेरे जैसा बाज़ार
ही बोलता है।
बाजार ही बोलता है।
कलम घिसाई