बाल श्रमिक
विधा- दोहा गजल
मुस्कानों को ढूंढते, सूने नैन हजार।
बाल श्रमिक को चाहिए, बस ठोड़ा सा प्यार।
होती हैं मजबूरियाँ, और उदर की आग,
बाल, श्रमिक कब शौकिया, बनता है सरकार।
बनती हैं सब योजना, जैसे हाथी दांँत,
आज धरातल पर नहीं, कुछ भी है साकार।
बाल श्रमिक के नाम पर, भर लो खुद की जेब,
जब कुछ कर सकते नहीं, रोना है बेकार।
नौनिहाल ये हिंद के, भटक गए हैं ‘सूर्य’,
शिक्षा सह आहार का, दो इनको उपहार।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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