बारिश वाली रात
रवि को फिर वहीं रात याद आ गयी , मूसलाधार बरसात हो रही थी और साँझ ने यह कहते हुए “आओ , मेरे पास । बहुत भीग गये हो कुछ ताप दूँ तुमको । उसे अपनी कोख में छिपा लिया था और रवि जिसकी सर्दी से हृदय धड़कन बढ़ गई थी यह कहते हुए , साँझ ! मुझे दुपका लो अपने हृदयतल में। साँझ में समा गया था । अंग से अंग सटाये दोनों को आभास न हुआ कब रात हुई और कब सुबह ।
सूर्य आकाश में अपनी रश्मियों के साथ चमक रहा था वहीं किरणें उन दोनों पर पड़ रही थी ।
साँझ ने झकझोरते हुए कहा , ” रवि , उठो । माँ याद कर रही होंगी , उठो और जाओ घर ।
रवि चलता गया , कदम बढाने के साथ -साथ साँझ के साथ बिताए पल भी आगे ही आगे बढ़ते जा रहे थे ।
जवानी भी किसी रूपसि कम नहीं होती जो अपने अंग -प्रत्यंग की खुशबू दूसरे में बसा जीना दुश्वार कर देती है और कल्पनालोक के संसार में विचरण करने को मजबूर कर अपने को किसी राजकुमार से कम भास नहीं कराती ।
कालेज से घर के रास्ते को लोटते हुए रवि की निगाह बरबस उस इमारत पर टिक जाती थी
जो मुगलकाल में बनी थी , जहाँ रवि और साँझ का प्रथम प्रणय शुरू हुआ था । प्राय: होठों से बुदबुदाते हुए मुस्कराहट के साथ पुकार बैठता था “साँझ , तुम कहाँ हो, कब आओगी “पर साँझ की अनुपस्थिति में एक आवाज अन्तस से आती और गूँज उठती -“रवि ! रवि !
मैं यहीं तुम्हारे पास हूँ और हमेशा , हमेशा के लिए ।
बस इन्तजार है उस दिन का जब तुम पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे अपनी दुल्हन बना हमेशा के लिए मुझे ले जाओगें ।
साँझ भावुक को अपनी निजता को खोलने लगी , रवि , ” पता है पापा ने एक लड़का देखा लेकिन तुम को छोड़ और किसी को जिन्दगी भर को अपना कहना रवि !अब सम्भव नहीं ।
यह विचारोक्ति जैसे परमपिता ने दोनों के बीच कोई कनेक्शन स्थापित कर रखा हो , रवि बात सुन रहा और एक बिजली सी चमक साँझ के अन्तर प्रकाशमान हो कहने लगी , साँझ ! बस तुम मेरी , केवल मेरी हो ।
डॉ मधु त्रिवेदी