बारिश में नहा कर
रात बारिश से नहा कर घर को जाती रही
शेष बूंदे बारिश की दिन को भिगाती रही
ठहर खुदमे सिमट नहाती रोशनी में जी भर
गूँजते आसमाँ की आवाजें दिल को भरमाती रही
टपकती पेड़ से बुंदे हवा के तेज झोकों से
टर्र टर्र बोलते मेंढक चर्र चर्र झिंगुरों की आवाजे
कभी कलरव है मोरो का कंही है घोर सनन्नाटे
जो पानी को तरसती थी वो नदिया उफनाती रही
सूखती टहनियों में हैं बचे जो चंद पत्ते रूखे से
बनू फिर कोपल ही डाली की रखी उम्मीद बूंदों से
गिरे जो साख से कबके लगे है सिसकियां भरने
खुद खाक में मिलेने से बढ़ा दू जान पेड़ो की सही
रात बारिश में नहा कर
डॉ एल के मिश्रा