बाबूजी
बाबूजी
मोहन का आठवीं कक्षा का परिणाम निकला था, वह प्रथम आया था, स्कूल प्रिंसिपल ने उसे स्टेज पर बुलाकर पुरस्कार दिया था, और कहा था कि ऐसे मेधावी छात्र कभी कभी ही दिखाई देते है। वह इसी साल हिंदी माध्यम से इंग्लिश में आया था , और आते ही इस बड़े स्कूल में छा गया था, स्पोर्ट्स,डिबेट्स, सब क्षेत्रों में उसने अपनी पहचान बनाई थी, और अब प्रथम आकर उसने सिद्ध कर दिया था , कि परिश्रम से कुछ भी पाया जा सकता है।
मोहन के कान में प्रिंसिपल के शब्द किसी बांसुरी की तान से घुल रहे थे, वह स्कूल से निकलकर बदहवास सा दौड़े जा रहा था , दौड़ते दौड़ते उसे पता ही नहीं चला , कि वह घर पहुंचने की बजाय मॉल पर पहुंच गया जहां बाबूजी साड़ियों की दुकान पर काम करते थे। वह यहां पहले कभी नहीं आया था, बाबूजी की सख्त ताकीद थी , “ मेरी दुकान तेरे स्कूल के पास है , पर वहां कभी नहीं आना। ”
पर आज मोहन इतना खुश था कि उसके पैरों ने सारी पाबंदिया तोड़ डाली थी । वह सोच रहा था आज बाबूजी कितने गर्व से उसे सब लोगों से मिलवाएंगे और लोग कैसे हंस कर कहेंगे , ‘ अरे सरपंचजी आपका बेटा है , फर्स्ट तो उसे आना ही था। ‘ तब वह कैसे बाबूजी कि आँखों में देखकर मंद मंद मुस्काएगा।
परन्तु दुकान पर पहुंचते ही उसके पैर ठिठक गए। उसके ऊँचे कद्दावर बाबूजी , जिन्हें गांव में सब लोग सरपंचजी कहकर आदर देते थे , दो युवतियों के सामने साड़ी बांधे खड़े मुस्करा रहे थे , एक पल के लिए उसे लगा जैसे वह अभी नाचने लगेंगे, घृणा,रोष, लाचारी, सब एकसाथ उसके भीतर भभक उठे , उसकी टांगे शिथिल हो , वहाँ दीवार का सहारा टटोलने लगी। वह दिवार के पीछे छुप गहरी साँस लेने लगा , पहली बार जीवन में उसे अपने दिल की धड़कन हाथ से छूटती लगी ।
स्वयं को थोड़ा संभाल उसने चोर नजरों से फिर से बाबूजी की ओर देखा , अब बाबूजी ट्रे लेकर सबको पानी पिला रहे थे कि इतने में कैश काउंटर पर बैठे युवक ने कहा, “ बेटा पानी मुझे भी पिलाना , और बाबूजी मुस्कराते हुए युवक की ओर बढ़ गए ।
मोहन को उस दिन साउथ एक्सटेंशन और उसके पीछे छिपे अपने गाँव का फर्क समझ में आया , उसे यह भी समझ में आया क्यों उसके प्रिंसिपल ने उसकी इतनी तारीफ करी थी, दिल्ली शहर में बसे यह गाँव , कैसे दोहरी जिंदगी जीते हैं !
वह घर आया, मां ने रिजल्ट के बारे में पूछा तो बता दिया, “ पास हो गया हूँ। ”
खाना खाया और सो गया , रात जब बाबूजी लौटे तो उन्होंने माथे पर हाथ रख कर कहा , “ थक गया लगता है , मेरे लौटने का इंतज़ार भी नहीं किया, पास हो गया , चलो यह बहुत अच्छा हुआ। “
मोहन ने सब सुना और चुपचाप पड़ा रहा , इन नए बाबूजी से अभी उसकी पहचान होनी बाकी थी, या अभी उसकी खुद से पहचान होनी बाक़ी थी । वह एक ही दिन में अचानक बड़ा हो गया था ।
——-शशि महाजन