‘बाबूजी’ एक पिता
‘बाबूजी’ एक पिता
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ज्ञान न मिला,जितना ‘गीता’ व ‘गुरु’ से;
‘बाबूजी’ से ’’ज्ञान’ पाया हमने,शुरू से।
उंगली पकड़ , चलना सीखा जीवन में;
सौहार्द से रहना सीखा , घर-आंगन में।
नित्य , प्रातः काल संग टहलना सीखा;
‘गौमाता’ की सेवा में भी,ढलना सीखा।
बाबूजी ने , ईमानदारी का पाठ पढ़ाया;
उनसे हमने , परोपकार का गुण पाया।
सीखा उनसे , खुरपी व कुदाल चलाना;
उन्हीं से,मोती-सा अक्षर लिखना जाना।
हरेक काम में, बाबूजी को निपुण पाया;
उनसे ही,निज अंदर अद्भुत गुण आया।
उनका मेहनत , उनकी निष्ठा व समर्पण;
हम सबके जीवन का,बना सच्चा दर्पण।
हम सबको उन्होंने , शून्य से सौ बनाया;
निज पीड़ा को,कभी किसी से न बताया।
उनका स्वभाव सह वाणी हर मन भाया;
किस्मत से,हमने बाबूजी सा पिता पाया।
इच्छा, निज मन में समाहित सदा हमारे;
पिता, पुत्र का रहूं मैं; ‘बाबूजी’ सा प्यारे।
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स्वरचित सह मौलिक;
©®✍️ पंकज ‘कर्ण’
……कटिहार(बिहार)।
तिथि: १५/०६/२०२२