बाबा साहब की अंतरात्मा
।।बाबा साहब की अंतरात्मा।।
एक बार की बात है कि एक पत्रकार हमेशा से सोचता रहा कि अगर हम बाबा साहब के समय में होते, तो उनसे इन सारे मुद्दों पर बात करते। फिर हुआ क्या? अचानक एक दिन उस पत्रकार के सपने में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर आ गए। वह पत्रकार देखता है कि वह स्वर्ग लोक में है और उसके सामने बाबा साहब हैं। फिर देर किस बात की, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की जयंती आने वाली थी। क्योंकि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर तो 6 दिसम्बर 1956 को स्वर्गवासी हो चुके थे और उनकी जयंती पर पूरे देश में एक अलग ही माहौल रहता है। इस जयंती को देखते हुए, उस स्वर्ग में पत्रकार बंधु बाबा साहब की इंटरव्यू लेने के लिए और बाबा साहब का इस पर क्या राय है? जानने के लिए तैयार हो गए।
पत्रकार बंधु:- बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी आपका इस इंटरव्यू सेशन में स्वागत है।
बाबा साहब:- धन्यवाद!
पत्रकार बंधु:- बाबा साहब जी आपकी जन्मतिथि पर पूरे देश में जयंती मनाया जाता है और उसमें कुछ खास विशेष वर्गों के द्वारा कुछ और तरीके से मनाया जाता है। इस पर आपका क्या विचार है?
बाबा साहब:- देखिए… जयंती मनाना देश को लोगों का काम है क्योंकि जो देश में महापुरुष होते हैं, जो अच्छे राजनेता होते हैं, जो देश के लिए कुछ किए हुए रहते हैं, उनकी जयंती तो पूरे देश में मनाई जाती है। वह राज्य सरकार हो, केंद्र सरकार हो या राजनीतिक पार्टियां हो। इन सभी के द्वारा जयंती मनाई जाती है। जैसे कि महात्मा गांधी हुए, जवाहरलाल नेहरू हुए, सरदार वल्लभ भाई पटेल हुए इत्यादि। सब लोग अच्छे नेता थे, देश के लिए कुछ किए थे। वैसे मैं भी एक भारतीय नागरिक होने के नाते समझता हूं कि देश के लिए कुछ किए थे। जिसकी वजह से लोग हमारी जयंती मनाते हैं और मनाना भी चाहिए। इसमें मैं किसी को कोई दोष नहीं दूंगा।
पर जो कुछ विशेष वर्गों के द्वारा मेरी जयंती मनाई जाती है। उसमें क्या होता है? कि मेरे नाम पर लोग गंदी राजनीति करना चाहते हैं। देश को तोड़ने का माहौल बनाते हैं और यहां तक कि वे लोग यह सोचते हैं कि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के नाम पर हम एक अलग राष्ट्र की मांग करें। तो यह उनलोगों की गलत सोच है और यह लोग हमें अपने जाति के नाम पर बदनाम कर रहे हैं। माना कि हम एक दलित वर्ग से आते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम हिंदुस्तान के नहीं हैं? हम हिंदुस्तान के रंग में नहीं रंगे? यह लोग जो है मेरे को जाति के नाम पर हिंदुस्तान से अलग करना चाहते हैं और यह देश का माहौल बिगाड़ना चाहते हैं। तो हम ऐसे लोगों से कहेंगे कि आप लोग, मेरे नाम पर ऐसा न करें। आप अपने तौर-तरीके से भले ही कुछ करें लेकिन वहां पर मेरा न तस्वीर लगाएं और नहीं मेरा नाम का प्रयोग करें क्योंकि मैं जीते जी तो हिंदुस्तान के लिए सेवा की, हिंदुस्तान के बारे में सोचा और ऐसा न हो कि अब हम इस दुनिया में नहीं रहे, तो आप मेरे नाम पर कुछ भी कर सके। यह गलत बात है। इसका मैं पुरजोर विरोध करता हूं।
पत्रकार बंधु:- अच्छा, बाबा साहब आपकी जो जन्मतिथि को लेकर के सवाल है। वह यह है कि आप की जन्म तिथि के दिन ही आपका जन्म हुआ था या हम लोग के जैसे कि जन्म तो हो गया, माता-पिता को तारीख की पता नहीं और माता-पिता अनपढ़ थे तो लिख नहीं पाए और जब हम लोग की नामांकन जब पहली किसी विद्यालय में हुआ, उस समय शिक्षक जी ने अपने मन से जन्म तिथि जो लिखी, वही जन्म तिथि हमारी जन्म की प्रमाण मानी जाती है। ऐसा तो नहीं है, आपका भी?
बाबा साहब:- देखिए… जो आपने सवाल किया है, वह अधिकतर लोगों में सही होता है लेकिन मेरे केस में यह सही नहीं है क्योंकि मेरा जब जन्म हुआ उस समय मेरे पिताजी पढ़े लिखे थे। आप जानते होंगे कि मेरे पिताजी अंग्रेजों के समय में सूबेदार थे और सूबेदार का मतलब क्या होता था उस समय? आप भली-भांति पूरी तरीके से जानते हैं, उसको बताने की जरूरत नहीं है। तो इस केस में मेरा जो जन्म तिथि है, वह मेरे पिताजी लिख करके रखे थे और बनवा करके रखे थे लेकिन जिस दिन जन्म हुआ था, वही तिथि मेरा जन्म तिथि है। जो 14 अप्रैल 1891 ई. है।
पत्रकार बंधु:- तो इसका मतलब कि आपका परिवार पहले से ही शिक्षित था?
बाबा साहब:- जी हां, मेरा परिवार पहले से शिक्षित था।
पत्रकार बंधु:- अच्छा बाबा साहब, आप यह बताने की कोशिश करें कि आपका पूरा नाम क्या है? और आपने जो पूरा नाम रखा उसमें किसके-किसके नाम का सहयोग लिए?
बाबा साहब:- देखिए… मेरे बचपन का नाम भिवा था। लेकिन विद्यालय में मेरे पिताजी नामांकन कराते समय भिवा रामजी आंबडवेकर से कराया। बाद में मैंने, अपने नाम में खुद से परिवर्तन किया और अपना पूरा नाम भीमराव रामजी आंबेडकर रखा।
दरअसल मेरी माता का नाम था भीमा, मेरे पिता का नाम था रामजी मालोजी सकपाल और मेरे पहले गुरु जिनका नाम था कृष्णा केशव आंबेडकर जो ब्राह्मण थे। इन सभी को आदर एवं सम्मान देने के लिए मैंने इन तीनों नामों में से कुछ नाम लेकर के और संयुक्त करके अपना नाम भीमराव रामजी आंबेडकर रखा। क्योंकि हर इंसान जब जीवन में कुछ बन जाता है तो वह अपने माता-पिता एवं प्रथम गुरु को हमेशा याद करता है और वह चाहता कि हम उनको सम्मान दें क्योंकि वह जीवन में जो भी कुछ बना रहता है उन्हीं की मार्गदर्शन से बना रहता है। उसी प्रकार मैंने भी अपने माता-पिता एवं गुरु के सम्मान के लिए अपना नाम भीमराव रामजी आंबेडकर रखा। बाद में मैंने जब डॉक्टरी की डिग्री हासिल कर ली तो उस समय मेरा पूरा नाम डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर पड़ा। बाद में लोगों ने प्यार से मुझे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर कहने लगे। पर उसमें से रामजी जो मेरे पिताजी का मूल नाम था उसे गायब कर दिया लो।
पत्रकार बंधु:- अच्छा बाबा साहब, यह भी आपके बारे में सवाल उठता है कि आप जब बचपन के दिनों में विद्यालय में पढ़ाई करने के लिए जाते थे, तो आपको विद्यालय के जो वर्ग होता है, उसमें सबसे पीछे बैठाया जाता था और आप को अछूत का कह करके बुलाया जाता था, आपको पानी पीने नहीं दिया जाता था? इसमें कितनी सच्चाई है, इसको थोड़ा विस्तार से बताए।
बाबा साहब:- देखिए… ऐसा कुछ नहीं था कि हमको पीछे बैठाया जाता था या पानी नहीं पीने दिया जाता था। यह विद्यालय की तरफ से ऐसा कोई कुछ काम नहीं होता था। ऐसी बातें सारी अफवाह है। दरअसल होता क्या था कि जब हम लोग बचपन के दिनों में विद्यालय जाया करते थे, तो उस समय सबके अपने-अपने दोस्त लोग होते थे और ग्रुपिंग चलता था। आज भी यह ग्रुपिंग चलता है। हरेक विद्यालय में देखते होंगे। तो उस समय हम लोगों का भी चलता था। उसमें होता क्या है कि मान लीजिए उस ग्रुप का एक भी छात्र उस दिन आगे आ गया तो वह पूरा आगे का सीट छेक लेता था। तो बाकी जो छात्र थे अपने आने के क्रम के अनुसार पीछे बैठते चले जाते थे। उसी प्रकार कभी-कभी हम लोग में से कोई आगे जाता था, तो वह भी पूरा आगे के सीट छेक लेता था, तो उन लोग को पीछे जाना पड़ता था। तो ऐसा होता रहता है और आज के समय में भी चलता है। तो इससे अगर कोई कहे कि हमें अछूत कह करके वर्ग में पीछे बैठाया जाता था, तो यह गलत बात है।
रही बात पानी पीने की तो पानी तो सब कोई एक ही जगह से पीता था। विद्यालय में तो दूसरा जगह होता नहीं था। आज के समय में भले ही एक विद्यालय में दो चापाकल, तीन चापाकल हल जा रहा है। पहली ऐसी व्यवस्था नहीं थी। उस समय होता क्या था कि जब हम लोग बोतल में पानी भरकर रखते थे पीने के लिए। तो जो कोई मुंह लगाकर पानी पी लेता था, तो बाकी के दोस्त उस बोतल का पानी नहीं पीते थे। मतलब उनका कहना था कि मुंह लगाकर मत पियो, मुंह लगाकर पियोगे तो पानी जूठा हो जाएगा। मतलब बोतल से सब कोई पानी पीता था लेकिन ऊपर से और कभी-कभी हंसी मजाक में कोई क्या करता था कि मुंह लगाकर पानी इसलिए पी लेता था। कि हम पी लेंगे तो दूसरा कोई पिएगा नहीं, तो फिर से जाकर भर कर लाएगा। तो इस तरह से हंसी मजाक हरेक बच्चे करते रहते हैं। उस समय हम लोग भी करते थे और ऐसा आज भी देखते होंगे कि कोई बोतल से पानी पी रहे हैं मुंह लगाकर के, तो उस बोतल से दूसरा कोई आज भी नहीं पीता है और नहीं पीना भी चाहिए। यह विज्ञान में पढ़ाया जाता है।
रही बात छुआछूत की तो आप देखे होंगे कि दोस्तों के बीच कभी-कभी जाति को लेकर के आपस में गाली गलौज भी हो जाता है कि वो साला तू इस जाति का है। यह साला तू इस जाति का है। यह सारा चीज हंसी मजाक में होता रहता है। इसमें बुरा मानने की कोई बाते नहीं है।
पत्रकार बंधु:- बाबा साहब, आज के जमाने में कहा जाता है कि आपके ऊपर ज्यादा भेदभाव हुआ और यह ब्राह्मण लोगों के द्वारा किया गया।
बाबा साहब:- देखिए… ऐसा कुछ नहीं है। छुआछूत भेदभाव जो है, वह किसी खास जाति के द्वारा और तो और ब्राह्मण जाति के द्वारा नहीं किया जाता है। अगर ब्राह्मण जाति के द्वारा छुआछूत भेदभाव मेरे साथ किया गया होता, तो क्या मेरे पहले गुरु ब्राह्मण होते! जिनके आदर सम्मान के लिए मैंने अपने नाम के अंतिम शब्द आंबेडकर अपने गुरु जी के नाम से लिया हुआ है।
देखिए… समाज में अगर कहीं छुआछूत भेदभाव है। वह जाति को लेकर के नहीं, वह सर सफाई को लेकर के हैं और इसमें किसी विशेष जाति के द्वारा नहीं की जाती है, बल्कि सभी जातियों के द्वारा होता है। इन सभी जातियों में कुछ-कुछ लोग होते हैं, जो सर सफाई को लेकर के भेदभाव जैसी बातें या घृणा करते हैं। यह हमारे समाज में भी है। हमारे जाति में भी कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सफाई को लेकर के भेदभाव रखते हैं।
पत्रकार बंधु:- अच्छा, बाबा साहब आपके द्वारा कुछ पुस्तक लिखी गई है और उसमें बताया जाता है कि आप बहुत गरीब परिवार से आते थे। लेकिन आप तो बता रहे कि आपके पिताजी सूबेदार थे। तो फिर आप गरीब कैसे हो गए हैं? इ क्या माजरा है?
बाबा साहब:- देखिए… यह बात सच है कि मेरे पिताजी अंग्रेजों के समय में सूबेदार थे। मेरा पूर्वज अंग्रेजों के समय में सेना में थे लेकिन गरीब होने का कारण यह था कि मेरे एक पिताजी कमाने वाले थे और हम लोग चौदह भाई-बहन थे। तो बताइए जिसके घर चौदह बच्चे हो, वह अकेला व्यक्ति कितना कमा करके लाएगा कि सबको भर पेट भोजन भी कराए और पढ़ाई का खर्चा भी उठाए। तो इस परिस्थिति में हम लोग गरीब थे, फिर भी इतना गरीब नहीं थे जितना बताया जाता है।
रही बात मेरी पुस्तक की तो देखिए… मैंने पुस्तक में क्या लिखा था? और लोगों ने उसे मॉडिफाई कर करके उसमें क्या-क्या जोड़ दिया? मुझे तो समझ में नहीं आता है कि मेरे पुस्तकों को तितर-बितर कर के लोगों ने कुछ-कुछ नई चीज उस में डाल दिए और मेरे नाम पर उसको प्रकाशित कर दिए और बोलते हैं कि बाबा साहब अपनी जीवनी में ऐसे लिखे है।
पत्रकार बंधु:- अगला सवाल यह है कि आप हिंदू धर्म यानी सनातन धर्म के बारे में क्या सोचते हैं?
बाबा साहब:- अरे, सनातन धर्म भी हमारा ही धर्म है। हम कहीं आसमान से उतरे हुए नहीं है। हम भी इस धरती पर मां के कोख से ही जन्म लिए हैं। रही बात हिंदू धर्म की तो हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है, वह कोई धर्म नहीं है और हम लोगों की समाज की बात रही या हमारी बात रही तो हम लोग सनातन धर्म से ही निकले हुए हैं। पर जब मेरी जन्म हुई उस समय हमारा परिवार हिंदू कबीर पंथ को मानता था। रही मेरी बात तो मैंने पूरा जीवन तो सनातन धर्म में ही जिया है।
पत्रकार बंधु:- तो फिर आप बौद्ध धर्म को क्यों अपनाएं?
बाबा साहब:- देखिए… पहले तो मैं स्पष्ट कर दूं कि बौद्ध धर्म नहीं बौद्ध धम्म है और बौद्ध धम्म का मतलब होता है बौद्ध पंथ। बौद्ध पंथ भी सनातन धर्म से ही निकला हुआ है, क्योंकि जिसे हम बौद्ध यानी बुद्ध भगवान कहते हैं। वह भी कभी सनातन धर्म की ही मानने वाले थे, बाद में भले ही वह अपना जीवन जीने का तरीका बदल दिए और उनको ज्ञान की प्राप्ति हुई, उस ज्ञान की प्राप्ति से उन्होंने लोगों का मार्गदर्शन देना शुरू किया। जिसकी वजह से बौद्ध एक पंथ बन गया।
जैसे कि मैंने पहले भी बताया कि मेरा पूरा जीवन सनातन धर्म एवं हिंदू जीवन पद्धति में ही बीता। लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में मैंने (14 अक्टूबर 1956) सनातन धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म को अपनाया। इसका मतलब यह नहीं कि मैंने हिंदू जीवन पद्धति छोड़ दिया। मैंने मरते दम तक हिंदू जीवन पद्धति को जिया और मुझे लगता है कि पूरे भारतवासी हिंदू जीवन पद्धति को जीते हैं।
पत्रकार बंधु:- एक और बात उभर कर आती है कि आप भारतीय संविधान के पितामह है और उसको आप ही ने लिखा है, इसमें कितनी सच्चाई है?
बाबा साहब:- देखिए… लोग क्या कहते हैं? उस पर मत जाइए। लोग कुछ भी कह सकते हैं। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाता है। क्या वह राष्ट्रपिता थे? नहीं थे। लेकिन एक उपाधि दी गई राष्ट्रपिता की। तो लोगों ने उन्हें राष्ट्रपिता मान लिया। उसी प्रकार मुझे लोगों ने संविधान का पितामह की उपाधि दी और लोग स्वीकार भी कर लिए, तो इसमें उन लोगों का बड़प्पन है। हमारा इसमें कोई योगदान नहीं है और रही बात संविधान लिखने की तो मेरे पास उतना ज्ञान कहा कि मैं अकेले विश्व की इतनी बड़ी संविधान को लिख सकूं। हां, इसे लिखने एवं सजाने में गिलहरी के जैसा तुच्छ सा मेरा सहयोग भी रहा। जैसे और लोगों का रहा।
संविधान लिखने एवं तैयार करने में केवल मेरी भूमिका ही नहीं रही, आपको मालूम होना चाहिए कि संविधान निर्माण के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया गया था। उस प्रारूप समिति का अध्यक्ष मुझे बनाया गया था। बाकी मेरे अलावा 6 सदस्य और थे इसमें। जो अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, कनैयालाल माणिकलाल मुंशी, मोहम्मद सादुल्ला, एन गोपालस्वामी अय्यंगर, बी. एल. मिटर और डी.पी. खेतान थे। इन 7 सदस्यों के अलावा कोई भी अनुसूची या अनुच्छेद तैयार करने के लिए संविधान सभा में चर्चा होती थी और उसमें जो पास होता था उसको लेकर के हम 7 सदस्य टीम बैठते थे और उस पर तर्क वितर्क करते थे। उसके बावजूद वोटों के माध्यम से पास किया जाता था। जिसके पक्ष में 7 में से आधा से अधिक वोट जाता था, वह संविधान के लिए अनुच्छेद या कानून बन जाता था। तो अगर किसी के द्वारा कहा जाता है कि केवल मेरे द्वारा विश्व के सबसे बड़ी संविधान को लिखा गया। तो यह उसकी बड़प्पन कहिए या उसकी भूल कहिए।
पत्रकार बंधु:- अच्छा तो आरक्षण पर आपकी क्या राय है और महात्मा गांधी के साथ पूना पैक्ट समझौता हुआ था, वह क्या था?
बाबा साहब:- देखिए… अंग्रेजों की नियति में हमेशा से रहा है की “फूट डालो और शासन करो”। ऐसी नियति पर वह हमेशा काम करते आए हुए थे और भारत पर राज किए थे। फिर भी जब द्वितीय गोलमेज सम्मेलन हुआ और मैं उसमें गया। उस समय उसी तरीका से भारत को तोड़ने के लिए जातियों के नाम पर 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैक्डोनल्ड ने “साम्र्पदायिक पंचाट” की घोषणा की। जिसमें दलितो सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया। यह अंग्रेजों की पहली कोशिश नहीं थी। इसके पहले कई बार उन्होंने ऐसी कोशिश की थी और इसी रुल के तहत उन्होंने भारत पर लगभग 200 वर्षों तक राज किया।
अंततः उनका यह प्रयास था कि जाते-जाते, फिर से भारत को हम टुकड़े-टुकड़े कर दें। यही बात गांधी जी को अच्छी नहीं लगी और वह इस “कॉम्युनल एवार्ड” के विरोध में पुणे के यरवदा सेन्ट्रल जेल में अनशन पर बैठ गये।
उसके बाद 24 सितंबर 1932 को डॉ राजेंद्र प्रसाद एवं मदन मोहन मालवीय के सहयोग से हमारे और गांधीजी के बीच बातचीत हुई और काॅम्युनल एवार्ड समाप्त किया गया। इसके साथ ही कुछ दूसरी शर्त लागू किए गए। वह यह किया गया था कि देश आजाद होने एवं संविधान लागू होने के बाद लगभग 10 वर्षों तक आरक्षण हर क्षेत्र में हिंदू दलितों को दिया जाएगा और 10 वर्षों के बाद जब वह मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे तो इसे समाप्त कर दिया जाएगा।
लेकिन आज के समय में आप देखेंगे कि आरक्षण हर जाति के लिए, हर राजनीतिक पार्टी के लिए चुनावी हथियार बन गया है। जिसकी वजह से आरक्षण कभी खत्म नहीं हुआ बल्कि धीरे-धीरे सारी जातियों को आरक्षण मिलना शुरू हो गया। हमको लगता है इसमें आपके दोनों सवालों का जवाब मिल गया होगा।
पत्रकार बंधु:- आपसे आखरी सवाल यह है कि कुछ लोग जो हैं, वह आप जो ब्लू कलर के कोर्ट पैट पहनते थे। उसी कलर को अपना पूज्य मान लिया है। उसी कलर के ध्वज बना करके लहराते हैं। उसी कलर का चंदन-टीका करते हैं। इस पर आपका क्या विचार है?
बाबा साहब:- देखिए… हमने सनातन धर्म को छोड़ा, हिंदू जीवन पद्धति को नहीं। जिस पंथ को मैंने स्वीकार किया। उसके अनुयाई भी हिंदू जीवन पद्धति को जीते आए और मेरे आराध्य जिसे हम लोग बुद्ध भगवान कहते हैं। वह भी हिंदू जीवन पद्धति को जीते आए और उनका वस्त्र हमेशा भगवा रंग का रहा। जैसे अन्य ऋषि मुनियों का भी भगवा वस्त्र रहता हैं। तो जब मेरे आराध्य भगवा रंग में है और हम उनके अनुयाई हुए तो फिर हमें दूसरे रंग की क्या जरूरत है?
पत्रकार बंधु:- अंत में अब आप अपनी अनुयायियों को कुछ संदेश देना चाहते हैं तो दे सकते हैं।
बाबा साहब:- अंत में मैं यही संदेश देना चाहूंगा कि आपके और मेरे बीच जिन मुद्दों पर बातचीत हुई। यह मेरी अंतरात्मा से निकली हुई बात है। इसमें कोई बनावटी नहीं है। तो आप सबो से कहेंगे कि आप जिस राष्ट्र में रह रहे हैं। उस राष्ट्र को मजबूत बनाइए और जिसे पूरा दुनिया बुला गई। उसे बुलाकर एक सशक्त राष्ट्र और मजबूत राष्ट्र बनाने में सहयोग कीजिए कि फिर से भारत विश्वगुरू बने सके। इसी में मेरी आत्मा है।
धन्यवाद!
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लेखक :- जय लगन कुमार हैप्पी
बेतिया, बिहार