बाप के ब्रह्मभोज की पूड़ी
साहित्य समाज का दर्पण है
साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से
उसमें समाज की छवि दिखलाता है
यही कारण है कि
समाज को उसका विकृत चेहरा
विरले ही भाता है
वैसे तो दुनिया में
उजाला करनेवाला रवि है
मगर जहाँ तक वह भी नहीं पहुँचता
वहाँ पहुँचने वाला कवि है
जी हाँ, वह कवि
जिसको आवश्यक
अच्छी सूरत नहीं होती
और किसी बड़ी डिग्री की
जरूरत नहीं होती
कवि जब भावनाओं की लहरों में
बहता है, हिचकोले खाता है
आनंदित होता है, लेखनी चलाता है
उसके मानस पटल पर
प्रेम, भक्ति, वात्सल्य, शोक,
हास्य, प्रेरणा, रोमांच, जोश,
साहस, दर्शन आदि के भाव आते हैं
तब जाकर हम
किसी व्यथित हृदय की
भावनाओं को पढ़ पाते हैं
उसकी कविता
भावों के चाहें जिस भी क्षेत्र में होती है
समाज में समरसता
और भाईचारा का बीज बोती है
लेकिन आज
ऐसी कविताएँ और कवि
अवकठ के जंगलों में खो गए हैं
आर्थिक रूप से समृद्ध और
बलात्कारी साहित्यकारों के सामने
बौने हो गए हैं
ये बलात्कारी साहित्यकार
चाटुकारिता और
जातिवाद के दम पर टिके हैं
ये मत पूछिए कि ये कितने बिकाऊ हैं
और कितने में बिके हैं
ये जब भी
किसी साहित्यिक गोष्ठी में जाते हैं
कवियों की कविताएँ सुनते हैं
उनसे पाल खाते हैं
उसी रात उनकी प्रसव-पीड़ा जागती है
और बंदूक नहीं
सीधे मशीनगन की तरह
कविताएँ दागती है
और ऐसे कवियों को जब
छपास का बुखार चढ़ जाता है
साहित्यिक फसल में
भूसे का अनुपात बढ़ जाता है
ऐसे ही
जब एक तथाकथित महाग्रंथ के
लोकार्पण का समय आया
आमंत्रण-पत्र भेजकर
आयोजक यानी महाकवि ने
मुझे भी बुलाया
कार्यक्रम स्थल पर पहुँचा तो देखा
आगंतुकों का एक बहुत बड़ा रेला था
पूरा साहित्यिक मेला था
साहित्यकार या
यूँ कहिए कलाकार महोदय की रचना का
जब चीर हरण हुआ
तो अंधे धृतराष्ट्र आँख खोल नहीं पाए
भीष्मपितामह भी कुछ बोल नहीं पाए
और जो कुछ कर सकते थे यानी कह सकते थे
उनके लिए
श्रोताओं की श्रेणी में पीछे का कोना था
और सभी शांत थे
क्योंकि उसी मंच से कुछ मित्रों को
सम्मानित भी होना था
दूसरे दौर के संचालन के लिए
अब आयोजक महोदय खुद आए―
“जिसको-जिसको सम्मानित होना है
लाइन में लग जाओ”― चिल्लाए
अतिथियों और
तथाकथित सम्माननीय लोगों को
मंच पर यूँ बुला रहे थे
जैसे डांट रहे हों
सम्मान-पत्र तो ऐसे दिया
जैसे बाप के ब्रह्मभोज में पूड़ी बाँट रहे हों
सम्मान की पूड़ियाँ
सबसे पहले महापात्रों को दी गयीं
उसके बाद
पुरोहित और उनके सहयोगियों ने पाया
तब पूरा कुनबा और भाई-पट्टीदारों का नंबर आया
दूर-दूर से गरीब और भीखमंगे भी पहुँचे
परंपरा के अनुसार और लोग भी खाए,
उनकी साहित्यिक आभा पर
भोलेभंडारी के जयकारे लगाए
तब कलमकार महोदय
या यूँ कहिए
कलाकार महोदय
अहंकार का आक्सीजन सुड़के
मादा मेंढक के जैसे फूल गए
और न्यौता भेजकर बुलाए गए
अपने फूफा को ही भूल गए
फूफा यानि परिवार का वरिष्ठ दामाद
और जब दामाद अपने पर आता है
तब ससुरालियों का छक्का छूट जाता है
ऐसा ही चल रहा था
वरिष्ठ दामाद प्रचंड रूप धारण कर
सबके सीने मूंग दल रहा था
तभी नन्हें सहयोगी साथ में आए
रिस्ते को टैग किया और समझाए
यह ससुर जी का ब्रह्मभोज है
साले साहब जो कर रहे हैं, करने दें
अगली बार सम्मान में
आपको शाल संग धोती और कुर्ता भी मिलेगा
बस सासू माता को मरने दें।
बस सासू माता को मरने दें।