बापू
बापू
बापू तू अमर्त्य, दिव्यरूप तेरा भास्वर है।
सच पूछो तो तू बापू,अहिंसा का स्वर है।
‘रघुपति राघव’-सम,यही क्या तेरा हृदय था।
अशांति की आँधी पे गाँधी एक हिमालय था।
आज अपेक्षित नहीं, हो तेरा जन्म दुबारा।
पर उपेक्षित भी नहीं, नभ में गुंजित तेरा नारा।
आज के संदर्भ में क्या दूँ बापू,तेरी परिभाषा।
गणितीय आकलन या व्यक्त करूँ मैं भाषा।
युग बदल रहा है,बदल रहे है शब्द और अर्थ।
बदली नहीं वाणी तेरीआज भी,तू कैसे समर्थ?
संकट के उफने समन्दर में बापू तुम टापू थे।
भारत के भाग्य-निर्माता,क्या तुम ही बापू थे?
अंतर्तम के ज्योति तू,ज्योति से दिव्यमान।
आँसुओं से रुद्ध कण्ठ के होठों की मुस्कान।
महाक्रांति के कांति,कांति के धवल आभास।
संक्रान्ति में शान्ति, शान्ति के उज्ज्वल प्रकाश।
स्वतंत्रता-संग्राम-नभ में उदित हुये थे सूर्य तुम।
जन-मन, राही-सिपाही में गुंजित रण तूर्य तुम।
-©नवल किशोर सिंह