बापू का भारत
गोल गोल चश्मे में
देखा था सपना
किसी एक नये भारत का
दिखाया था रास्ता लड़ने का,
अहिंसा,प्रेम ,श्रम के अस्त्र से
निःशस्त्र हो कर भी।
कहां खो गए तुम
दबी हुई धमनियों में
कष्ट को भी नींद आने लगी है
मेरे देश के सपने सारे
मांस हीन ,रक्त हीन,
चरखे के भीतर
पड़े हैं साबरमती के आश्रम में
अब करवटें ले रही हैं आशाएँ
दिन और रात को एक ही चिंता
ढूँढना है उस रास्ते को
जो व्याप्त है तुम्हारी तरफ
सत्तर साल की स्वाधीनता
फिर भी मेरा देश देख रहा है
आकाश की तरफ
नये एक इतिहास के लिए
सूरज भी छान छान कर
भेजने लगा है धूप को
छूने के लिए, वही
लाठी पकड़ने वाले हाथों को
और आधे दिखते
आधे छिपते पाँवों को
अब भी एक विश्वास जी रहा है
दीपक को हाथ में लिए
शायद यहाँ से उठेगा एक चरित्र
परिणाम और लक्ष्य को लेकर
ढूँढ लाएगा आत्मा को
मृत जैसे जी रहे हैं शरीर में
इंतजार है
उस सुबह का
मैंने तो पर्दा डालना छोड़ दिया ।
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