बादल भी क्या पागल हुए
शिकवा शिकायत इन बादलों से रही
कहीं बरस के कहीं गरज के चले गए
हुए कहीं-कहीं वो रिमझिम रिमझिम
कहीं-कहीं तो बूंद-बूंद को तरस गए
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कहीं-कहीं पौधें भीगे और हुलस गए
जैसा चाहा बादल भी पानी परस गए
आसमान रह गए ताकते कहीं-कहीं
और तिल-तिल करके वो झुलस गए
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साथ हवाओं का बादल मदहोश हुए
खुल्लमखुल्ला राजधर्म को छोड़ गए
दुरभि सन्धि की दूर देश को चले गए
आखिर क्यों मुझसे वो मुंह मोड़ गए
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बादल इधर से आकर क्यों उधर गए
क्यों पूरा गर्जन इधर बरस उधर गए
अपनी धरती मां का न क्यों पैर छुए
पक्षपात बादलों का क्यों मेरे गैर हुए
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बादल सबके फिर क्यों संकुचित हुए
कुछ अतिशय निकट कुछ से दूर हुए
अपनों के दुख-दर्दों पर न द्रवित हुए
भेदभाव की बीमारी से संक्रमित हुए
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बादल खुद किसी और से भ्रमित हुए
या चकाचौंध से अतिशय चकित हुए
कहीं जल का भारी प्रवाह प्रलित हुए
अपनी कुत्सित मंशा पे न दुखित हुए
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न दूर-तलक भी बादल के दीदार हुए
मौसम के पूर्वानुमान सभी बेकार हुए
व्यथित हुए हम पानी बिन बादल हुए
रहा सवाल बादल भी क्या पागल हुए
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–राममचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’