*बातें बनती-बनती बिगड़ती हैँ*
बातें बनती-बनती बिगड़ती हैँ
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बातें बनती-बनती बिगड़ती हैँ,
बिगड़ी बातें बन कर सँवरती हैँ।
हमने देखा चल कर अकेले भी,
सूनी राहें मन को अखरती हैँ।
खोली खाली रहती बिना साथी,
तन-मन् यादें रहती मचलती है।
भंवर मे फंसी फांस दरिया में,
धीरे – धीरे नैया सरकती है।
पीड़ा मन की कोई नहीं जाने,
दोनों बांहे खाली अकड़ती हैँ।
जड़ से हटकर है सूखती देखी,
शाखाएँ सागर से निकलती हैँ।
मनसीरत मचले भंवरा जैसे,
मैला मनवा पंछी फितरती हैँ।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)