बाट जोहती इक दासी
चितवन नेह छुपा न पाये
सुधि विरहन बनकर बैठी है।
फिर ऋतुराज कनखियों देखें
कोयल की बोली बहकी है।।
महुवा की सुरभित चंचलता
मन में भरती मिली उमंग
कुछ मलंग गीतों को साधे
चले बजाते ढोल मृदंग
नव-विकसित पल्लव ने बांधे
शाखों पर अनगिन घुंघरूं
अंग अंग मधुमास लपेटे
राह निहारें कुछ जुगनू
प्रिया बसंत के नेह से सजकर
भोग पूजती मोदक संग
टेसू दहक दहक मोहित कर
छोड़ें हर पग मोहक रंग।।
परदेसी ने लिखकर भेजी
ढाई आख़र प्रेम की पाती
पावन तुलसी निकट बैठकर
बाट जोहती है इक दासी
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
(रश्मि लहर)
लखनऊ