बाजार
महानगर के
व्यस्त,बेचैन,छटपटाते बाजार में
ज़िंदगी
अपनापन ढूँढ़ते-ढूँढ़ते
प्रतिपल
बिकती रहती है
कृत्रिमता की गहरी खाई
हमें
निगलती जाती है।
प्रतिक्षण
रंग-बिरंगे
अंतहीन आकर्षण
आतंरिक व्यवधानों के बाद भी
पल-पल
झकझोरते हैं हमें
रस-विलास की जगमगाती राहें
हमारी आँखें बंद कर देती हैं
ना अपने दिखते हैं
ना पराये
सभी बन जाते हैं
मील के पत्थर
और
गुम होती जाती है
ज़िंदगी हमारी
इसी बेचैन,अमर्यादित
व्यस्त,छटपटाते
जलते बाजार में।