बाजार
गीतिका
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खूब फैले जा रहे हैं हर जगह बाजार।
व्यक्ति होता जा रहा है बेवजह लाचार।
हर जगह धन चाहिए तो बन सके कुछ बात।
पा सकेगा किस तरह अब मुश्किलों से पार।
अर्थ सेवा का बदल कर रह गया है आज।
स्वार्थ साधन हेतु यह भी बन गया व्यापार।
किस तरह से पूर्ण होंगे जिन्दगी के स्वप्न।
देखिए जब खिसकता ही जा रहा आधार।
खूब सुख सुविधा जुटाकर हो गये हैं मस्त।
भूलते ही जा रहे हैं जिन्दगी का सार।
बारिशें आती रही हैं गर्मियों के बाद।
बेसमय आती नहीं ठंडक लिए बौछार।
स्वार्थ तज कर जो बढ़ाता है मदद को हाथ।
कौन किसके काम आना चाहता है यार।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य