बांस का चावल
मरते हुए बांस की अंतिम
निशानी बांस चावल
छः हजार प्रजातियों में
सबसे खास बांस चावल
आदमी के अंतिम गति में
होता रहा हर दम शरीक
कई बार कटा बढ़ता रहा
खड़ा रहा सदा निर्भीक
मरते – मरते बांस अपना
आखिरी पल दे गया
अपने अंतिम गति में भी
बांस चावल दे गया
पचास – सौ वर्षों में ऐसी
घड़ी एक – दो बार आती है
मृत्यु बांस पर भी अपनी
काली घटा लहराती है
जीवन के अंतिम सफ़र में
बांस भी आ जाता है
जो आदमी के अंतिम सफ़र में
कई घाट तक चला जाता है
बहुत ही ख़ास है
चावल -ए – अर्पण बांस का
क्या मानव भूल सकेगा
ऐसा समर्पण बांस का
आदिवासियों के बीच रहकर
हर पड़ाव पर सहारा बना
जाने की बारी जब उसकी आई
वह भी बड़ा बेचारा बना
सारे पोषक तत्वों को
जीवन पर्यन्त समेट कर
चला जाता है संसार से बांस
एक अनमोल निशानी भेंट कर
बांस की कहानी का अंत
इस तरह से हो गया
जाते-जाते इस धरा से
इसी धरा में खो गया
कविता – बांस का चावल
-सिद्धार्थ गोरखपुरी