बाँसुरी
* बाँसुरी *
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ब्रजभाषा में छंद
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जबहु निहारी कभी श्याम की सलौनी छवि ,
मन मेरौ श्याम की लुभाय गयी बाँसुरी ।
जब ते सुनीयै तान तन कौ रहे न ध्यान ,
मिसरी सी कानन घुराय गयी बाँसुरी ।
सोह रही ओठन पै प्यारे मनमोहना के ,
चुप मन बैरन चुराय गयी बाँसुरी ।
‘ज्योति’ कहै बाँसुरी की तान में बसी है जान,
राधे नाम श्याम की सुनाय गयी बाँसुरी ।।
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ऐ री दादी ! पतरी सी बाँस की लकड़िया सी ,
कौन तोकूँ सुघड़ बनाय गयी बाँसुरी ?
छैंदन में तेरे जानै भेद कहा रोप दिये ,
कौन तोमैं औगुन भराय गयी बाँसुरी ?
काहे श्यामसुंदर के हाथन में परि गयी ,
कौन अधरन पै धराय गयी बाँसुरी ?
‘ज्योति’ कहै काहे तोमैं राधिका कौ नाम बसै ,
काहे श्याम इतनी सुहाय गयी बाँसुरी ?
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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