बाँसुरी बन कर
बाँसुरी बन कर अधर पर गुनगुनाता कौन है ।
यह मेरा इल्मो अदब मुझमें सजाता कौन है ।।
कौन है जो बारहा आता है मेरे सामने ।
बच निकलने का भी फिर रस्ता बनाता कौन है ।।
अब नहीं हम आह भरते हैं किसी भी चोट पर ।
फिर हमारे ज़ख़्म दुनिया को दिखाता कौन है ।।
रूह आख़िर रूह है नापाक हो सकती नहीं ।
इस पे मिट्टी का बदन आख़िर चढ़ाता कौन है ।।
दाँव पर सब कुछ लगा कर आज मैं हूँ सामने ।
रू ब रू आ ज़िन्दगी, देखूँ हराता कौन है ।।
विष पिया, अमृत पिया, शरबत पिया औ जाम भी ।
प्यास अश्कों के सिवा लेकिन बुझाता कौन है ।।
रू ब रू माँ बाप के झुकने नहीं देता गुरूर ।
दर ब दर फिर शीश यह मेरा झुकाता कौन है ।।
एक मुद्दत से खड़ा हूँ रास्ते पर मैं “नज़र” ,
देखता हूँ हमसफ़र मुझको बनाता कौन है ।।
Nazar Dwivedi