बह्र-2122 1212 22 फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन काफ़िया -ऐ रदीफ़ -हैं
#मतला
आजकल कम किसी से मिलते हैं।
अब नहीं हर किसी से मिलते हैं।
#हुस्न -ए-मतला
सिलसिले दर्द के ही मिलते हैं।
चाक-ए-दिल कब किसी के सिलते हैं।
#शेर
हम भी खुशबू फिज़ा से जा कहना
माँ की साँसों में रोज़ घुलते हैं।
#शेर
ज़ीस्त की धूप में है मांँ छाँया,
माँ नहीं तो ये पाँव जलते हैं।
#शेर
पास जब माँ नहीं है मिलती तब
नींद से उठ के आँख मलते हैं ।
#शेर
एक माँ ही है जिसके आँचल में
खूब बच्चे सा हम मचलते हैं।
#शेर
आयतें माँ ने कुछ पढ़ी ऐसे
तान की ज़िद पे दीये जलते हैं।
#गिरह
क्यूँ हैं कब तक हैं किस की ख़ातिर ये
माँ की आँखों में ख़्वाब पलते हैं।
#शेर
कुछ तो मैंढक के ढब हैं दुनियाँ में
जब भी जी चाहे जा उछलते हैं।
#मक़्ता
जान थी खूब महफिलें ‘नीलम’
अब बहुत घर से कम निकलते हैं ।
नीलम शर्मा ✍️
चाक-ए-दिल-टूटे दिल
तान-हवा
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