बह्र -212 212 212 212 अरकान-फ़ाईलुन फ़ाईलुन फ़ाईलुन फ़ाईलुन काफ़िया – आना रदीफ़ – पड़ा
मतला
अश्क पीने पड़े दर्द छिपाना पड़ा।
चेहरे पर मुखौटा लगाना पड़ा।
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हुस्न-ए-मतला
भूल बैठे उसे यूँ जताना पड़ा।
झूठ का जाल ही यूँ बिछाना पड़ा।
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गिरह
ज़ख्म दिल के टपकते रहे रात भर
दर्द दुनिया से अपना छिपाना पड़ा ।
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ए – मुहब्बत तेरी वफ़ा के लिए,
बेवफा हमको क्यों यूँ कहाना पड़ा।
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ख्वाहिशों ने उड़ानें थी जब भी भरी
सबसे मिलना पड़ा मुस्कुराना पड़ा।
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पाक़ रिश्ता हमारा न बदनाम हो,
चाहकर भी उसे भूल जाना पड़ा।
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जिंदगी का भरोसा नहीं कल हो क्या
इश्क़ की रस्म को यूँ निभाना पड़ा।
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राज़ ‘नीलम’ जिगर में छिपे हैं कई
आइना दरमियाँ से हटाना पड़ा।
नीलम शर्मा ✍️