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19 Nov 2024 · 1 min read

बहू

एक उड़की-उड़की हुई बहू,
चांद-सा चेहरा उसका,
क्यो थी लुढकी- लुढकी सी बहू,
सुबह सवेरे रेल के सफर में,
बैठी चुपकी – चुपकी सी बहू।

रूप सुंदर नैना काले,
गोरे रंग मे पीली पहने साड़ी,
कैसे देखो ढरकी- ढरकी सी ,
नींद के आगोश में,
पलके झपके यूँ बहकी- बहकी।

सारमाये यूँ मूँह घुमाये,
जाने क्या न आहिस्ता से छुपाए,
सफर में उड़ी थी नींद जैसे,
सुबह सवेरे चेहरे में झलक दिख जाए,
सोते हुये भी जीवन कट जाए।

नयी- नयी ये उम्र है,
परवाह किसको किधर है,
माया जाल है भव सागर का,
अज्ञान मे बात समझ न आये,
यूँ ही नैया कैसे पार हो जाए।

एक उड़की-उड़की हुई बहू,
होठों मे जब मुस्कान लाये,
लगे यूँ ज्ञान का कमल खिल जाए,
गन्तव्य आते ही नीद के आगोश से बाहर आये,
खिल खिलाते हुये जीवन सफर अब कट जाए।

रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।

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