*बहू हो तो ऐसी【लघुकथा 】*
बहू हो तो ऐसी【लघुकथा 】
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कमरे में घुसते ही उसने चटकनी लगाई और फिर घूँघट उतार फेंका । घने काले लंबे बाल वह लहराने लगी । उसे अच्छा लग रहा था ।
शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि को उसने निहारना शुरू किया । सुंदर आँखें ,नाक ,दोनों कान ,होंठ और फिर गालों पर से होते हुए ठोड़ी पर उसकी निगाह टिक गई ।
गर्दन अभी भी वस्त्र से ढकी हुई थी । वह सोचने लगी ,आखिर ऐसे रहने में भी बुराई क्या है ? कितना अजीब लगता है ,जब चेहरे के आगे कपड़ा ढक जाता है और सब कुछ धुँधला दिखाई देना शुरू हो जाता है।
हम औरतों को क्या विधाता ने इसी लिए बनाया है कि हम अपना चेहरा किसी को न दिखाएँ ? सबसे पर्दा करें और सूरज की रोशनी हमारे चेहरे का स्पर्श करके हमें अपराध का भागीदार न बना पाए ।
सोचते-सोचते उसे इस लंबे घूँघट से घृणा होने लगी । उसका दिल चाहता था कि वह कमरे से बाहर घर में और सड़क पर सब जगह घूँघट हटा कर घूमे। गर्दन से ऊपर सब कुछ खुला रहे ,इसमें आपत्तिजनक क्या है ? क्यों तुमने हमें कैद कर रखा है ? परंपरा के नाम पर ? संस्कृति के नाम पर ? रीति-रिवाजों के नाम पर ? उसने चीखना चाहा – हमें आजादी चाहिए !
तभी सास की आवाज उसके कानों में पड़ी । लगता है ,घर में कोई मेहमान आए हैं ! उसने घबराकर झटपट लंबा-सा घूँघट काढ़ा और कमरे के बाहर निकल आई। वह गुमसुम थी । मगर घर और बाहर सब जगह उस के घूँघट की तारीफ होती थी । सब कहते थे,बहू हो तो ऐसी !
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451