बहू-बेटी
बहू-बेटी
“मम्मी जी, मैंने आपसे पहले भी कई बार कहा है और अब फिर से कह रही हूँ कि मैं दुबारा शादी नहीं कर सकती।” रमा अपनी जिद पर अड़ी थी।
“देखो बेटा रमा, मैंने तुम्हें कभी बहू नहीं माना, हमेशा अपने बेटे जैसा ही माना है। और इसी हक से मैं तुम्हारी दुबारा शादी कराना चाहती हूँ। तुम्हारे मम्मी-पापा से मेरी बात हो गई है। उन्हें कोई भी आपत्ति नहीं है।” वंदना ने अपनी बहू को समझाते हुए कहा।
“मम्मी जी, मैंने भी आपको कभी सास नहीं माना। हमेशा अपनी माँ के समान ही माना है और आज भी आपके बेटे के रूप में कह रही हूँ कि मैं आपको और दादा जी को छोड़ कर दुबारा शादी नहीं करने वाली। अब तो दादा जी की भागदौड़ के बाद मुझे रमेश जी के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति भी मिल गई है। ठीक है रमेश जी का और मेरा साथ लंबा नहीं रहा, पर उनके साथ बिताए गए दो साल की यादों के सहारे में ये पूरा जीवन बिता सकती हूँ।” रमा बोली।
“नहीं बेटा, मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। जो गलती तीस साल पहले मैंने अपने सास-ससुर की बात नहीं मानकर की थी, वह गलती तुम्हें नहीं करने दूँगी। बाबूजी आप ही समझाइए न रमा को।” रमा की सास वंदना ने अपने ससुर की ओर देखते हुए कहा।
“देखो बेटा, रमा मैंने, तुम्हारी स्वर्गीय दादी और इसके मम्मी-पापा ने बहुत कोशिश की थी अपने बेटे की दुर्घटना में मौत के बाद तुम्हारी सास की दुबारा शादी कराने की। पर ये पगली टस से मस नहीं हुई…।” व्हील चेयर में बैठे दादा जी बोले।
“दादाजी, अब आप भी शुरु हो गए। ये सब मुझे पता है और मेरा निश्चय दृढ़ है कि मैं आप दोनों को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली।” रमा ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया।
“अरे पगली, तुझे कोई कहीं जाने के लिए कौन बोल रहा है। तू यहीं रहेगी हमारे साथ। तेरा दूल्हा यहाँ रहेगा हम सबके साथ। तेरे मम्मी-पापा से मेरी बात हो गई है। वे भी एक योग्य घरजमाई की तलाश में हैं। अब तो ठीक है।”
“दादाजी…।” दादाजी से लिपटते हुए रमा का गला भर आया था। उसकी सास आँचल के पहलू से अपने आँसू पोंछ रही थी।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़