बहू का विदाई गीत
बहू का विदाई गीत
परिपाटी के मस्तक द्वारे, संस्कारों की छाँव
आई दुल्हन सहमे सहमे, साजन अपने गाँव
हुई विदा जब बाबुल अंगना, दिल में था बस नीर
सूखी-सूखी आँखें उसकी, पतझड़ तात अधीर
कह रही थी दुनिया सारी, उलटी पलटी नाव
आई दुल्हन सहमे सहमे, साजन अपने गाँव
एक कदम जो बढ़ा धरा पर, अक्षत, रोली, पात्र
बिखर बिखर कर बिखर गए वो, अंगूठे से मात्र
क्या जाने वो राजदुलारी, क्या जीवन क्या दाँव
आई दुल्हन सहमे सहमे, साजन अपने गाँव
पापा, मम्मी,भैया, भाभी, अब बस्ती वो दूर
नये नये थे रिश्ते सारे, आलिंगन में चूर
चार दिवस की यही चाँदनी, ज्यूँ कविता के भाव
आई दुल्हन सहमे सहमे, साजन अपने गाँव
मर्यादा की चुनरी सिर पर, बाँहों में दायित्व
चूल्हा, बर्तन और नौकरी, नया नया स्वामित्व
वंश बेल की है यह जननी, सहती हर दिन घाव
आई दुल्हन सहमे-सहमे, साजन अपने गाँव।
सूर्यकान्त द्विवेदी