बहु बहु रे बयार।
गांव में गर्मियों के दिन पर छत पर ही सोना होता था। मई, जून की गर्मियां तो ऐसी होती थी जैसे सूरज सिर पर आकर ही बैठ गया है। शाम ढलने के पश्चात भी यह अहसास बना रहता था। रात में यदि हवा चलती तो गनीमत रहती थी किंतु कभी कभी तो हवा इस तरह ठहर जाती थी कि पेड़ों की पत्तियां तक नहीं हिलती थीं। तब गर्मी और उमस के कारण मन बेचैन हो उठता था। मन ऊबने लगता था।
तब हम मां से कहते : ये हवा कब चलेगी ?
मां : थोड़ी देर में ।
कुछ समय पश्चात हम बेचैनी से फिर मां से कहते अभी तक हवा नहीं चली। हम लोगों को विश्वास था कि मां के पास हर सवाल का ज़बाब और हर समस्या का समाधान था। मां भी निराश नहीं करती थीं।
वे कहती : एक मंत्र बता रही हूं। इसे एक पढ़ना है और एक सांस में “बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार ” जितनी बार कह सकते हो कहना है। इससे हवा चलने लगेगी।
मंत्र कुछ इस तरह है।
” पुरवा कै छै भाई , अरिमल, परिमल , छुरी , कटीरमल , नेम , धरम , बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार।”
फिर हम शुरू हो जाते।
” पुरवा कै छै भाई अरिमल , परिमल , छुरी , कटीरमल , नेम , धरम,
बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार , बहु बहु रे बयार ।”
मिनटों यही मंत्र जाप चलता।
हवा चलती या नहीं चलती किंतु हमें धीरे धीरे नींद जरूर आ जाती।
आज एसी कमरे में बैठे हुए सहसा मां , गर्मियों की वे रातें तथा वह मंत्र याद आ गया।
बरबस ही आंखे नम हो गईं।
Kumar Kalhans