बहुरि अकेला भव में
नव्य शैशव हुए कितने वीरान
प्लव – प्लव – प्लावित माया
अब इस पुलिन की क्या कसूर ?
जग – जग हुँकार अब भी त्राण
कौन सुने इन दुर्दिन की व्यथाएँ ?
कहर उठी उर में चुभती भी कोमल हृदय में
लहर दे मारती स्वप्न में विकलता भी क्रदन करती
बहुरि अकेला भव में , दे अन्तिम कौन सन्देश ?
आशाएँ टूट पड़ी जैसे पतझड़ के तृण यहाँ
दे बोल उठते सब कैसे हो तू प्रिय / प्रियवर ?
मै सहचर तेरा सदा अगर एक हाँक दे दे मूझे
सच बताऊँ एक बार तू खंगाल दे उस उर को
बात भी बदल जाएगी जो दिए वचन मुख को
मुख – मुख में छिपा अग्नि के ज्वाल अंगार
जो दे विष उगल , हो जाएगा जग हाहाकार
दर्प हनन शेष नहीं , दे रही किस करुण कहानी को ?
मत पूछ दर्द – अग्नि हो जिसका , आँशू की गिरे बौछार घनघोर
दिव्य प्रज्वलित नहीं उठते उमंग में , जो दबे पाँव पसार
भरती एक बार जोश उत्साह , फिर मिटी , वहीं जगहार
फूल बरसे या चन्द्रहास , कौन कहे फिर कोमल या तेज धार
लौ दीपक में भी कहाँ वो ढ़ूढ़ती प्रज्वलित ज्वाल अंगार ?
निःशेष नहीं बचा , कहाँ वो कण भी जिसे ढ़ूढ़ते पन्थ न जाएँ भूल ?
कँटीली काँटो में भी कहाँ , देखे पुष्पित पुष्प खिले अब राहों में ?
राही राहों में देखें उपदंश , भ्रष्ट , मिथ्या , दम्भ भरा संसार
कहाँ जाऊँ ? इस भव छोड़ अंतर्मन के भग्नहृदय में घनघोर कहर प्रबल है ।