बहुत दिनों बाद एक गीत लिखने का प्रयास।
बहुत दिनों बाद एक गीत लिखने का प्रयास।
खोज रहा मैं कोलाहल में,अपना बचपन,प्यारा गाँव।
मन-दर्पण में देख रहा हूँ,खेत,गली,बरगद की छाँव।।
पत्थर के जंगल में आकर,मानव दिखता पत्थर है,
सुख,सुविधा,शोहरत सबकुछ पर,चैन कहाँ मन अंदर है।
हँसी-ठिठोली, नोंक-झोंक गुम, अपनापन का भाव नहीं,
मिट्टी ऊपर सड़क-बिछावन, दर्द भरा ज्यों घाव कहीं।
धूल भूल कर शूल-शहर पथ,झेल रहा है मेरा पाँव।
खोज रहा मैं कोलाहल में,अपना बचपन,प्यारा गाँव।।
कल्लू काका,कमला काकी,दादी नानी संग नहीं,
कलकल नद की धार कहाँ अब,कलरव गान विहंग नहीं।
भोर नहीं वह,साँझ नहीं वह,स्वर घंटों का भूल गया,
मैं न रहा जो पहले मैं था,लगता मेरा मूल गया।
घोर शोर के बीच भँवर में,लगा हुआ ज्यों जीवन दाँव।
खोज रहा मैं कोलाहल में,अपना बचपन,प्यारा गाँव।।