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29 Jun 2018 · 5 min read

ख़ुद्दारी पर शा’इरों की दिल छू लेने वाली शा’इरी

—संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली
(1.)
तबीअत इस तरफ़ ख़ुद्दार भी है
उधर नाज़ुक मिज़ाज-ए-यार भी है
—जिगर मुरादाबादी

(2.)
दरबार में गया था, तब तो झुका-झुका था
बाहर खड़ा जो ख़ुद को, ख़ुद्दार कह रहा है
—रमेश प्रसून

(3.)
नहीं टूटे कभी जो मुश्किलों से
बहुत ख़ुद्दार हम ने लोग देखे
—महावीर उत्तरांचली

(4.)
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
—इक़बाल साजिद

(5.)
कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वर्ना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता
—द्विजेंद्र द्विज

(6.)
शर्मसार-ए-जवाब हो न सका
बस-कि ख़ुद्दार था सवाल अपना
—तिलोकचंद महरूम

(7.)
ख़ुद-सर है अगर वो तो मरासिम न बढ़ाओ
ख़ुद्दार अगर हो तो अना तंग करेगी
—सफ़दर सलीम सियाल

(8.)
शाम-ए-ग़म करवट बदलता ही नहीं
वक़्त भी ख़ुद्दार है तेरे बग़ैर
—शकील बदायुनी

(9.)
ज़ात ‘ख़ुद्दार’ की दिखी जब जब
शाइ’री का हसीं समाँ हूँ मैं
—मधुकर झा ख़ुद्दार

(10.)
नाकामियों ने और भी सरकश बना दिया
इतने हुए ज़लील कि ख़ुद्दार हो गए
—कर्रार नूरी

(11.)
इस लिए मुझ से ख़फ़ा है कोई
उस का होते हुए ख़ुद्दार हूँ मैं
—ख़ालिद अहमद

(12.)
हूँ वो ख़ुद्दार किसी से क्या कहूँ
साँस लेना भी बुरा लगता है
—जर्रार छौलिसी

(13.)
हम ‘रियाज़’ औरों से ख़ुद्दार सिवा हैं लेकिन
रह के माशूक़ों में हम वज़्अ निबाहें क्यूँकर
—रियाज़ ख़ैराबादी

(14.)
ख़ुद्दार हूँ क्यूँ आऊँ दर-ए-अहल-ए-करम पर
खेती कभी ख़ुद चल के घटा तक नहीं आती
—शकेब जलाली

(15.)
ऐसे इक़दाम का हासिल है यहाँ नाकामी
बज़्म-ए-साक़ी है ये ‘कशफ़ी’ यहाँ ख़ुद्दार न बन
—कशफ़ी लखनवी

(16.)
ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा
—मुज़फ़्फ़र रज़्मी

(17.)
इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे
इश्क़ में भी कई ख़ुद्दार निकल आते हैं
—विपुल कुमार

(18.)
ख़ुद्दार की बन शक्ल अलिफ़ हाए अनल-हक़
नित चाहती हैं इक नई मंसूर की गर्दन
—इंशा अल्लाह ख़ान

(19.)
कुछ तिश्ना-लब ऐ साक़ी ख़ुद्दार भी होते हैं
उड़ जाएगी मय रक्खे रह जाएँगे पैमाने
—सिराज लखनवी

(20.)
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कि शबनम के लिए दामन तो फैलाया नहीं करते
—नुशूर वाहिदी

(21.)
हुस्न ख़ुद्दार हो तो बाइस-ए-शोहरत है ज़रूर
लेकिन इन बातों में हो जाती है रुस्वाई भी
—क़मर जलालवी

(22.)
बहुत दुश्वार है ख़ुद्दार रह कर ज़िंदगी करना
ख़ुशामद करने वाला सदक़ा-ए-दस्तार क्या देता
—उनवान चिश्ती

(23.)
ख़ुद्दार तबीअत है अपनी फ़ाक़ों पे बसर कर लेते हैं
एहसान किसी का दुनिया में हरगिज़ न गवारा करते हैं
—हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी

(24.)
किस क़दर ख़ुद्दार थे दो पाँव के छाले न पूछ
कोई सरगोशी न की ज़ंजीर की झंकार से
—शबनम नक़वी

(25.)
मिरे बच्चे भी मेरी ही तरह ख़ुद्दार हैं शायद
ख़याल-ए-मुफ़लिसी मुझ को कभी आने नहीं देते
—वसीम मीनाई

(26.)
अच्छे लगते हो कि ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम
हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना
—ऐतबार साजिद

(27.)
उसरत में जिन का शेवा कल तक था ख़ुद-फ़रोशी
दौलत के मिलते ही वो ख़ुद्दार हो गए हैं
—नज़ीर सिद्दीक़ी

(28.)
तरस खाते हैं जब अपने सिसक उठती है ख़ुद्दारी
हर इक ख़ुद्दार इंसाँ को इनायत तोड़ देती है
—जावेद नसीमी

(29.)
हम ‘फ़ख़्र’ सरकशों के न आगे कभी झुके
रखते हैं इक तबीअ’त-ए-ख़ुद्दार क्या करें
—इफ़तिख़ार अहमद फख्र

(30.)
उस को तकते भी नहीं थे पहले
हम भी ख़ुद्दार थे कितने पहले
—महमूद शाम

(31.)
मिरी ख़ुद्दार तबीअ’त ने बचाया मुझ को
मेरा रिश्ता किसी दरबार न सरकार के साथ
—सैफ़ुद्दीन सैफ़

(32.)
मैं प्यासा रह के भी मिन्नत नहीं करता किसी की
बहुत ख़ुद्दार हूँ मैं ये समुंदर जानता है
—अमित अहद

(33.)
तू वो कम-ज़र्फ़ जो हर दर पे दामन को पसारे है
मैं वो ख़ुद्दार जो दरिया से भी प्यासा निकल आया
—नवाज़ असीमी

(34.)
मोहब्बत करने वाले भी अजब ख़ुद्दार होते हैं
जिगर पर ज़ख़्म लेंगे ज़ख़्म पर मरहम नहीं लेंगे
—कलीम आजिज़

(35.)
मिरे ख़ुद्दार लब पर जब कभी लफ़्ज़-ए-अना आया
मिरी क़ीमत लगाने कीसा-ए-ज़र सामने आए
—इक़बाल माहिर

(36.)
‘क़ैसर’ भी सलीब अपनी उठाए हुए गुज़रा
कहते हैं कि ख़ुद्दार था जीने के हुनर में
—क़ैसर अब्बास

(37.)
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब
इक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था
—राहत इंदौरी

(38.)
दस्त-बस्ता है सहर शब की इजाज़त के लिए
अब के ख़ुद्दार तबीअत न रही ताबिश में
—राही फ़िदाई

(39.)
सीम-ओ-ज़र से न सही सब्र-ओ-क़नाअत से सही
मुझ से ख़ुद्दार की झोली भी तो भर दी जाए
—साहिर होशियारपुरी

(40.)
उस बंदा-ए-ख़ुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूक में भी लुक़्मा-ए-तर पर नहीं गिरता
—क़तील शिफ़ाई

(41.)
हर घड़ी अपनी तमन्नाओं से लड़ते लड़ते
इक चमक चेहरा-ए-ख़ुद्दार में आ जाती है
—अतुल अजनबी

(42.)
जो रहा ख़ुद्दार होने पर ख़ुदी से दूर दूर
वो दयार-ए-इश्क़ ओ दिल-सोज़ी का वाली हो गया
—दत्तात्रिया कैफ़ी

(43.)
निसार इस लन-तरानी के ये क्या कम है शरफ़ उस का
दिल-ए-ख़ुद्दार ने कर ली निगाह-ए-ख़ुद-निगर पैदा
—इक़बाल सुहैल

(44.)
मिरी ख़ुद्दार ‘फ़ितरत’ की ख़ुदा ही आबरू रक्खे
ख़िज़ाँ के दौर में अज़्म-ए-बहाराँ ले के चलता हूँ
—फ़ितरत अंसारी

(45.)
क़ल्ब-ए-ख़ुद्दार की ख़ातिर तो है ज़िल्लत का सबब
लौ सदा उस बुत-ए-काफ़िर से लगाए रखना
—मीनू बख़्शी

(46.)
बहुत मुश्किल है जो उस की ग़रीबी दूर हो जाए
अजब ख़ुद्दार है इमदाद को भी भीक समझे है
—ज़मीर अतरौलवी

(47.)
मौज-ए-ख़ुद्दार अगर है तो सू-ए-ग़ैर न देख
किसी तूफ़ाँ किसी साहिल का भरोसा भी न कर
—रविश सिद्दीक़ी

(48.)
तुम अपने जल्वा-ए-नौख़ेज़ पर यूँ नाज़ करते हो
अगर मेरा दिल-ए-ख़ुद्दार भी मग़रूर हो जाए
—जौहर ज़ाहिरी

(49.)
ख़ुद्दार बन ख़ुदी की तलब ले के जी सदा
बे-फ़िक्र उस पे जान भी कर दे निसार तू
—बबल्स होरा सबा

(50.)
यूँ कहने को पैराया-ए-इज़हार बहुत है
ये दिल दिल-ए-नादाँ सही ख़ुद्दार बहुत है
—ज़ेहरा निगाह

(51.)
तुम मुझे बेवफ़ाई के ताने न दो मेरे महबूब मैं बेवफ़ा तो नहीं
तुम भी मग़रूर हो मैं भी ख़ुद्दार हूँ आँख ख़ुद ही भर आए तो मैं क्या करूँ
—अनवर मिर्ज़ापुरी

(52.)
न पूछो क्या गुज़रती है दिल-ए-ख़ुद्दार पर अक्सर
किसी बे-मेहर को जब मेहरबाँ कहना ही पड़ता है
—जगन्नाथ आज़ाद

(53.)
जहाँ सच बात कहने का हो मतलब जान से जाना
उसी महफ़िल में बस अपना दिल-ए-ख़ुद्दार बोलेगा
—शायान क़ुरैशी

(54.)
ज़ेहन-ए-ख़ुद्दार पे ये बार ही हो जाता है
ग़ैर के सामने दामन जो पसारा जाए
—अब्दुल रहमान ख़ान वासिफ़ी बहराईची

(55.)
जान दी है दिल-ए-ख़ुद्दार ने किस मुश्किल से
आज बालीं पे वो ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-आरा न हुआ
—फ़ैज़ी निज़ाम पुरी

(56.)
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर
दिल-ए-ख़ुद्दार पर ख़ुदा की मार
—सलीम अहमद

(57.)
दिल-ए-ख़ुद्दार की ज़बूँ-हाली
होश इज़्ज़ ओ जाह से पूछो
—अर्श मलसियानी

(58.)
खुद अपने ही रस्ते की दीवार हूं
सबब बस यही है कि ख़ुद्दार हूं
—मजाज़ सुल्तानपुरी

(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)

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