बहस
आज तुम किसी बात पर उलझे
तो मेरी प्रतिक्रिया भी सिर्फ मुद्दे पर न टिक सकी।
क्योंकि ये बात तुमने कही थी
इसलिए मेरा जवाब तो तुमसे उलट होना लाजिमी ही था।
यदा कदा मेरा पक्ष मेरी मजबूरियां तय कर देती है
और कभी कभी पूर्वाग्रह।
मेरा जवाब इस बात पर भी निर्भर करता है कि पहले इस तरह की बातों पर
मेरा क्या जवाब रहा है?
तुम भी सीमारेखा के उस ओर ठीक इसी तरह तरह डंटे रहते हो,
बिना टस से मस हुए।
हाँ, तुमसे सुलह होने पर मेरा पक्ष भी स्वतः बदल जाएगा। और तुम भी दिल बड़ा कर बैठोगे।
दरअसल,बात मुद्दे की शायद कभी रही ही नही!!
ये कहीं तुममे और मुझमे उलझ कर रह गई है।
तुम्हारा और मेरा सच अब किसी मूल्यों का मोहताज नही रहा।
तुम अपनी जंजीरो में जकड़े हुए हो
और मैँ अपने पाए से बंधा।
तेरी और मेरी ये बहस बेमानी सी है दोस्त।
बेहतर है, मुझे खुद से ही बहसने दो पहले।
और तुम भी ऐसा ही करो
एक दूसरे से हम बाद मे निपट लेंगे।
बहुत हो गया,
अब बहस के तौर तरीकों को बदला जाए
और मिलकर कुछ हल तलाशे जाएं।।