बहर- 121 22 121 22
ये दिल परिंदे सा फड़फड़ाए।
क़फ़स से लेकिन निकल न पाए।
सुबह ने आ कर मुझे सुलाया,
हज़ार सपने मुझे दिखाए।
कि रुख हवा का जा रोको कोई,
अँधेरी शब ना दिया बुझाए।
है अब तो तिनके का ही सहारा,
नदी न बहना कभी सिखाए।
निकल गये जो जिगर से मेरे,
कभी वो ‘नीलम’ न लौट पाए।
नीलम शर्मा ✍️
क़फ़स-पिंजरा