बस यूँ ही…
हमने कब चाहा..
ओढ़ लें चादर ख़ामोशी की..
कुलबुलाते ख्वाबों और
मचलती हुई ख्वाहिशों को दबा दें
अपने दिल की गहराईयों में
कुछ इस तरह
कि ज़ज्ब हो जाएं मेरी रूह में
एक अनकहे किस्से की तरह!!
अपने खयालों और
तेरी यादों के बुन कर जाले
खुद को को छिपा लूं
खुद के भीतर,
और सांसो के चलने तक
करता रहूँ इस तरह मोहब्बत
तुझ से
जितनी अब है, और होगी
सफर के खत्म होने तक.
तुमने न शायद समझा है न
समझोगी कभी..
कुछ पाने और चाहने से परे
होते हैं चंद ज़ज्बात,
लोग उसे इश्क कहते हैं
मैंने दिया इबादत उस का नाम ..!!!
हिमांशु Kulshreshtha