बस यूँ ही!
‘बस यूँ ही’
अभिमान नहीं है,
आत्मसम्मान है।
होना भी चाहिए,
प्रेम है माना हमने!
प्रेम में प्राण अर्पण,
पर आत्म सम्मान!
नहीं, कदापि नहीं!
जब किया गया तिरस्कार हो,
बंद कर दिया गया द्वार हो।
तब दस्तक देना
अनुचित होगा !
सर्वथा अनुचित!
बस यही,
अन्यथा कोई वाद नहीं।
मन की डोर बंधी है,
बंधी रहेगी अनवरत।
तुम्हारे न चाहने पर भी!
हाँ! यूँ ही बस यूँ ही।
कुछ होना ही
जरूरी तो नहीं…
कुछ होना साथ रहने की
शर्त भी नहीं…
अधिकार की इच्छा भी नहीं,
किसीकी वस्तु या संपत्ति पर।
क्या हम स्वयं के लिए
कुछ करने योग्य नहीं?
जो दूसरों से उम्मीद
लगाए जीते हैं अपने जीने के लिए।
धिक्कार है ऐसी जिन्दगी पर!
©® Gn