*बस मे भीड़ बड़ी रह गई मै खड़ी बैठने को मिली ना जगह*
बस मे भीड़ बड़ी रह गई मै खड़ी बैठने को मिली ना जगह
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बस में भीड़ बड़ी,रह गई मै खड़ी,बैठने को मिली ना जगह,
बस पर क्यों चढ़ी,पीछे ना क्यों हटी,समझ ना आई वजह।
दाएं बाएं देख हारी,आई न मेरी बारी,कोई भी उठ ना सका,
बन गई मै बेचारी,खड़ी रही थकी हारी, काम न आई जिरह।
चारों और से थी फंसी,रोई न ही थी हंसी,सब कुछ था सहा,
पैरों से पैर कटे ,कोई नहीं पीछे हटे,जैसे कोई पुरानी कुनह।
खूब पसीना आया,तन-मन गरमाया,दिल रोने को था हुआ,
आगे पीछे देखा सारा,चला ना कोई चारा,करती रही कलह।
चालक से थी लड़ी,गालियों की दी झड़ी,क्यों ली बस में चढ़ा,
धीरे से वो बोला,मत करो यूँ रोला,ईंजन पर बैठ कर सुलह।
उसकी थी बात मानी,चली नही मनमानी,हाल था बहुत बुरा,
मनसीरत कटा पथ,स्वेद से लथ-पथ,घर लिया आन निगह।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)