बस में सवार…
हर रोज
आफिस आते-जाते
मैं बस में सवार
‘मन’ विचार तरंगों पर सवार
खिड़की की कांच में सर टिकाए
अपने आप में खोकर
कविता तलाशने
बुनने लगता हूं शब्द
खोजता शब्दों के अर्थ
डूबता-उतराता
भूत-भविष्य-वर्तमान में
जीवन का अर्थ तलाशता
कि स्टॉप आ जाता
इन दिनों यही है
हर रोज-दिनक्रम
प्याज के छिलके-से उतारता
जीवन का
रोज का सफर यूं ही
गुजर जाता.
-22 जनवरी 2013 मंगुवार
सायं करीब 3 बजे