बस तुम लौट आओ…
कितना वक्त लगता है महल को खंडहर बनने में
कुछ महीने, कुछ साल, या दशक भर
मैंने पूछा इन दरकती दिवारो से
इन बेबस देहलीजो से
वीरान पड़ी रसोई से और
कदमों की आहट को तरसती इन सिड़ीयों से
मुझे लगता था ये क्या बोल पाएंगे
बेजान खंडहर भी कभी कुछ बोलते हैं क्या
मैने फ़िज़ूल मे पूछ लिया शायद
मैं नम आंखे लिए मुड़ा और चल दिया
इतने में एक आवाज आई, एक चीख
मानो कोई सहारे को तरसता इंसान पुकार रहा हो
दर्द से एक बेबस करहा रहा हो
आज सबमें प्राण थे सब में भावनाएँ
पत्थर भी आज पिघला था
सिसकियां भर रहा था शायद
कुंडी पे लटका वो ताला
वर्षों से जंग सहता, आज अपनी चुप्पी तोड़ बैठा
वो अंगना में लगा पेड, मायूस नज़र आ रहा था
इतनी आवाजे सुनकर मैं ज्यादा देर रुक ना सका
कदम लड़खड़ाते हुए पीछे को लोटे, इतने में
एक हल्की आवाज एक बूंद के टपकने की
भरे मरुस्थल में एक जल की बूंद सी
पुराने नल से टपकती, वो बुंद कह रही हो
मैं अभी भी तुम्हारी प्यास बुझानें को तैयार हूं
बस तुम लौट आओ…