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12 Jun 2023 · 1 min read

बस इतनी सी चाह

बस इतनी सी चाह भगवन
धरा स्वर्ग फिर बन जाये
त्याग भेद भाव सब जन
पुनः एक दूसरे के हो जाय।

कितने धर्म व कितने पंथ
मानव का घुट रहा है दम
पुनः धरा पर आओ ईश
रहे खुशी सबजन हरदम।

बहुत दिनों से सुनता आया
पेड़ की जड़ बस एक तूही
समझ नही पाते यह सत्य
आकर ईश बता जा तू ही।

सभी सत्य के वाहक है
हिंसा सभी मे है वर्जित
फिर क्यो मची मार काट
चाह सभी की सब अर्जित।

सभी तिहारे ही संतान
है क्यों फिर मतपंथ अलग?
और एक दूसरे से सभी
क्यों अनवरत हो रहे बिलग।

कभी कभी मेरी पीड़ा भी
हो जाती है असहनीय
कैसी विरासत छोड़ रहे हम
हमें बताओ हे नमनीय।

निर्मेष थक चुका है यह तन
ढोते ढोते हुए यह बोझ,
कितना भी कुछ कर ले कोई
पूछ स्वान की हो ना सोझ।

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