बस्ती बिखर गई
***बस्ती बिखर गई(ग़ज़ल)***
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बसी बसाई बस्ती बिखर गई,
बनी बनाई बातें बिसर गई।
पता चली ज्यों ही आम सादगी,
मिरी यही आदत है अखर गई।
कभी नहीं आई आप सामने,
छिपी अदा उनकी है निखर गई।
जरा झलक जैसे ही दिखी कहीं,
नजर तभी उन पर है पसर गई।
मिली नजर मनसीरत गई पकड़,
तभी जुबां से अपनी मुकर गई।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)