“बसता प्रभु हृदय में , उसे बाहर क्यों ढूँढता है”
“बसता हृदय में , उसे बाहर क्यों ढूँढता है ,
अरे प्रभु तो घट घट वासी , सत्संग में क्यों ढूँढता है l
आज शहर में है ढिंढोरां, कहीं मण्डप लगा है ,
सत्संग लगी फ़लाने की , कहीं बिछौना लगा है l
हुए सब अंध पागल , भक्ति हुई अंधी,
बाबा की होगी कमाई , भक्ति हुई सस्ती l
सस्ता हुआ प्रभु का नाम ,
क्या इसलिए मुखौटाधारियों में प्रभु को ढूँढता ,
बसता हृदय में , उसे बाहर क्यों ढूँढता है l
बाबा करे दिखावा ,
चड़े तगड़ा चढ़ावा l
बाबा है भौतिकता वादी महान ,
करे मूर्ख इनका सम्मान l
बाबा को केवल धन से मतलब ,
भक्ति नहीं दूर दूर , है इनको सिर्फ़ पैसे की तलब l
हुई पागलों की भीड़ इकट्ठी,
क्या इसलिए पाखंडियों में प्रभु को ढूँढता है ,
प्रभु बसता हृदय में , उसे पंडालों में क्यों ढूँढता है l
जब होती भगदड़, भक्त या कहूँ नर नारी खूब मरते है ,
बच्चे , औरत, बूढ़े जवान , तड़प तड़प कर मरते है l
चीख इनकी , दर्द इनका , तकलीफ़ इनकी , उन बाबाओं को नहीं पहुँचती ,
रोते खूब नर नारी , बिलखती मनुषीयत सारी , पर बाबाओं के जूँ तक नहीं रैंगती l
फिर भी पता नहीं क्यों आज का मानव ,
भागता ऐसे पंडालों में ,
रोते परिवार , डूबते घर बहार, समझता नहीं घाँवों से l
अरे अभी भी वक्त संभल जाओ ,
क्यों ऐसों की चोखट चूमता है ,
अरे प्रभु तो घट घट वासी , बाहर क्यों ढूँढता है l
नीरज कुमार सोनी
“जय श्री महाकाल”