बसंत पर मुक्तक
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पात पुराने बिछुड़े डाली- डाली
नव पल्लवों ने बिखेरी हरियाली
हुई पद आहट ऋतुराज वसंत की
कुहू कुहू बोले कोयलिया काली ।
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छायी खेतों में सरसों पीत
प्रकृति भी सुना रही नव गीत
नव रंग रूप सजा चहुंओर
ऋतु बसंत का है यह संगीत ।
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सरसों टेसू पलाश फुलवारी
महका ये जग महकी है क्यारी
हुआ आज मुग्ध मगन मन मितवा
महकी बयार बसंत की न्यारी।
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प्रकृति छलकाती रूप गगरिया
धरती ने ओढ़ी हरी चुनरिया
टांका पीली सरसों का गोटा
आया बसंत हमारी नगरिया।
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हुए ज्यों वीणा के तार झंकृत
प्रकृति हुई सुर ध्वनि से अलंकृत
नदियाँ कल-कल गा रही रागिनी
होता सृष्टि का कण-कण उपकृत।
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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