बसंती कोंपलें लताएं हरी
तन जीर्ण
मन विदीर्ण
राहें संकीर्ण
हवाएं क्षीर्ण।
कोंपलें बसंती
लताएं हरी-भरी
आकाश नीले
धरा सुनहरी।
जीवन प्रयोग
चहुंओर आमोद
दुःख भी प्रमोद
विरह भी संयोग।
कभी प्रारब्ध
कभी उद्यम
कभी दैव
कभी आदम।
कहीं तर्क
कहीं स्वीकृति
कहीं मौन
कहीं संवाद।
रक्त और शिराएं
सांस और धमनियां
नयन और दृष्टियाँ
स्वयं से भी दूरियाँ।
संधि और विच्छेद
जन्म और मृत्यु
काल और कपाल
अस्तित्व और ह्रास।
कहीं सार-संक्षेप नहीं
कुछ भी निरंतर नहीं
प्रश्न ही प्रश्न जीवन,
कोई प्रत्युत्तर नहीं।
-श्रीधर